अतियथार्थवाद क्या है | Ati Yatharthavad Kya Hai | अतियथार्थवाद | Surrealism | Surrealism kya hai

 

अतियथार्थवाद क्या है | Ati Yatharthavad Kya Hai 
अतियथार्थवाद (Surrealism)


     ‘अतियथार्थवाद’ अंग्रेजी के सरियलिज़्म (Surrealism) का हिंदी पर्याय है। साहित्य और कला के क्षेत्र का यह एक ऐसा आंदोलन है जिसका जन्म प्रथम विश्वयुद्धोत्तर फ्रांस में हुआ। नाम से यथार्थवाद के चरम रूप का भ्रम पैदा करने वाला यह ‘वाद’ यथार्थवाद से पूर्णतः भिन्न है और एक तरह से स्वच्छंदतावाद की ही अंतिम परिणति है।

    यथार्थवाद मूल्य-निरपेक्ष भाव से यथार्थ के चित्रण को ही साहित्य तथा कला का लक्ष्य मानता है। उसके मत में यह यथार्थ कितना ही विकृत या कुरूप हो, उसे प्रस्तुत करने से हिचकना नहीं चाहिए। इसी भावना का एक दिशा में विकास बीसवीं सदी के तीसरे दशक के प्रारंभ में ‘दादावाद’ के रूप में हुआ और यही आगे चलकर ‘अतियथार्थवाद’ में परिणत हुआ।


         अतियथार्थवाद में बाह्य यथार्थ से भी अधिक बल मानव के अवचेतन (subconscious mind) में छिपे हुए यथार्थ को दिया गया है क्योंकि इनके अनुसार यही वास्तविक तथा विस्तृत सच्चाई है। बाहरी स्तर पर उसका एक बहुत ही छोटा अंश दिखाई देता है। अवचेतन (subconscious mind) में स्थित इस आंतरिक यथार्थ में मानव की पशु-वृत्तियाँ तथा दमित वासनाएँ निहित होती हैं। रचनाकार का काम है इस यथार्थ को उसके खुले रूप में चित्रण, चाहे वह कितना ही विकृत या वीभत्स क्यों न हो।


    इस चित्रण में वह साहित्यशास्त्र या नीतिशास्त्र की किसी भी रूढ़ि को नहीं मानता बल्कि रचना की प्रक्रिया में वह अपनी तरफ से सामग्री में संयोजन-व्यवस्था की बौद्धिक चेष्टा भी नहीं करता। विचार जिस प्रकार जिस भी क्रम में उसके मन में आते हैं, उसी प्रकार अनायास अभिव्यक्त होते चलते हैं।


    अतियथार्थवाद का उद्भव और विकास


    अतियथार्थवाद प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) जनित विभीषिका का स्पष्ट प्रतिफलन था। प्रथम विश्व-युद्ध के भीषण नर-संहार एवं आर्थिक ह्रास ने यूरोपीय समाज को अव्यवस्था, अराजकता, विवेकशून्यता एवं एक प्रकार की नकारात्मक प्रवृत्ति से भर दिया था। परिणामस्वरूप कलाकार एवं साहित्यकार इस विश्वव्यापी भीषण तबाही से ऊब कर एक ओर तो निराश और हताश होकर कठोर यथार्थ के आघातों से जर्जरित अवचेतन मन के रहस्यमय गह्वरों में विचरण करने लगे तो दूसरी ओर समाज, धर्म, कला एवं साहित्य की पूर्वमान्य सभी मान्यताओं को धराशायी करने लगे।


    अतियथार्थवाद ‘दादावाद’ (Dadaism) से सर्वाधिक प्रभावित था। किन्हीं अर्थों में ‘दादावाद’ अतियथार्थवाद का जनक है। ‘दादावाद’ (1916) ट्रिस्टन जारा (Tristan Tzara) द्वारा प्रवर्तित ऐसा आंदोलन था, जिसका प्रमुख उद्देश्य सभी प्रकार के नैतिक एवं कलात्मक मूल्यों और प्रतिमानों का विध्वंस करना था।


     दादावाद के समर्थकों ने समाज, धर्म, कला, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों के मान्य-मूल्यों का विनाश करके नवीन मूल्यों की स्थापना करना ही अपना दायित्व समझा। अतियथार्थवादियों ने कला एवं साहित्य के प्रचलित सिद्धांतों को घृणा की दृष्टि से देखना दादावादियों से ही सीखा था। इस तरह अतियथार्थवाद प्रथम विश्वयुद्ध जनित विभीषिका तथा दादावादी प्रभाव का परिणाम था।

    अतियथार्थवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि में फ्रायड, हीगेल तथा मार्क्स के साहित्य-सिद्धांतों का पर्याप्त प्रभाव रहा है। फ्रायड की अचेतन मन (unconscious mind) संबंधी धारणा, हीगेल का समन्वयवादी चिंतन, मार्क्स चिंतन आधारित तत्कालीन अर्थव्यवस्था के खोखलेपन के प्रति वितृष्णा आदि अनेक अवधारणाओं ने अतियथार्थवादी आंदोलन के अभ्युदय में सहायता की है।


      अतियथार्थवाद की परिभाषा देते हुए इस शब्द का वर्तमान अर्थ में प्रयोग सबसे पहले फ्रांसीसी साहित्यकार आंद्रे ब्रेतां ने 1924 ई. में अपने घोषणा पत्र ‘मेनिफेस्टो ऑन सरियलिज़्म (Manifesto on Surrealism) में किया। वस्तुतः इस आंदोलन का प्रारंभ यहीं से हुआ।


    1936 ई. में लंदन में अतियथार्थवादी कला की प्रदर्शनी उद्घाटित हुई। हर्बर्ट रीड, जो इस आंदोलन के समर्थक थे, ने इसका परिचय प्रस्तुत किया। इस तरह फ्रांस में प्रादुर्भूत ‘अति यथार्थवादी’ आंदोलन विश्वव्यापी हुआ।


     अनेक अंग्रेजी आलोचकों का विश्वास है कि 19वीं सदी का स्वच्छंदतावाद ही विकसित होकर 20वीं सदी के प्रारम्भिक पांच दशकों में अतियथार्थवाद के रूप में परिणत हो गया। स्वच्छंदतावादी रहस्यमयता, अतिप्राकृत एवं अतिरंजित कल्पनाशीलता, स्वानुभूति को रूपायित करने का प्रयत्न, व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, आत्मप्रकाशन की प्रवृत्ति, अवचेतन मनःस्थितियों को चित्रित करने का संकल्प आदि अनेक स्वच्छंदतावादी विशेषताएं अतियथार्थवाद की भी विशेषताएं हैं।

     इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वच्छंदतावादी तत्त्व अतियथार्थवाद के भी अंशीभूत हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि स्वच्छंदतावाद ही विकसित होकर अतियथार्थवाद हो गया, क्योंकि दोनों में मौलिक भेद है ।


    युद्ध-विभीषिका तथा ‘दादावाद’ से आक्रान्त अतियथार्थवादी कलाकार मानव की नग्न पाशविकता, उसकी यौन विकृति के ऐसे अवांछित चित्र भी प्रस्तुत करते हैं, जो स्वच्छंदतावादी प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल हैं। यही नहीं, मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रभावित अतियथार्थवादी, समाज का पुनर्गठन भी करना चाहते हैं, जो कि स्वच्छंदतावाद के क्षेत्र से बाहर की चीज है ।


    अतियथार्थवादी आंदोलन के विकास की तीन कालावधियां हैं। प्रथम काल आंद्रे ब्रेतां के प्रथम घोषणापत्र से प्रारंभ होकर दूसरे घोषणापत्र के प्रकाशन (1924-1929) तक माना जा सकता है। इस काल में यह प्रवृत्ति अवचेतन मन (unconscious mind) को बिना तर्क अथवा बुद्धि के बंधन के शब्द देने की  कोशिश करती रही।


      अतियथार्थवादियों की धारणा रही कि मानव मस्तिष्क को किसी प्रकार भी पूर्ण विमुक्ति दिलाना ही कला-साहित्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन होगा। सभी प्रकार के सामाजिक मूल्यों एवं परंपराओं का विनाश करके नवीन मूल्यों की स्थापना करना ही इस प्रथम काल के अतियथार्थवादियों का प्रधान उद्देश्य रहा।


    अपने द्वितीय काल (1929-1933) में अतियथार्थवादी साम्यवाद की ओर झुके रहे, परिणामस्वरूप इस युग के अतियथार्थवाद में मार्क्सवादी जीवन-दर्शन का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। यह काल आंद्रे ब्रेतां के दूसरे घोषणा पत्र (Second Manifesto on Surrealism) के प्रकाशन से प्रारंभ होकर कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध-विच्छेद होने के कारण अतियथार्थवादी पत्रिका (Review) के प्रकाशन के बंद हो जाने (1924-1929 ) तक माना जा सकता है।


     अपने तीसरे और अंतिम काल में अतियथार्थवादी कलाकारों एवं साहित्यकारों पर मार्क्सवादी प्रभाव क्षीण हुआ तथा वे स्वदेश-प्रेम, धर्म-परिवार व्यवस्था के साथ ही साथ सजग लेखन की प्रवृत्ति की ओर भी उन्मुख हुए।


    अतियथार्थवाद का उद्देश्य 

      

         आंद्रे ब्रेतां ने अपने प्रथम घोषणापत्र में अतियथार्थवाद के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा था कि इसका उद्देश्य मानव मन को किसी प्रकार के भी बंधन से पूर्ण मुक्ति दिलाना तथा आंतरिक और बाह्य सत्य से एकाकार करना है। आंद्रे ब्रेतां ने स्वतःचालित (Automatic Writing) लेखन को अतियथार्थवादी- साहित्यकार के लिए अपरिहार्य माना है। स्वतःचालित लेखन के माध्यम से अवचेतन मन की अभिव्यक्ति में वह आदतों, धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं, शिल्पगत नियमों आदि से संबंधित किसी प्रकार के भी अंकुश को स्वीकार नहीं करते। उनकी धारणा है कि यह बंधनहीन अभिव्यक्ति ही मानव और ब्रह्मांड के सही संबंध का उद्घाटन कर सकती है।

          हर्बर्ट रीड के अनुसार मनुष्य एक हिमखंड (iceberg) की तरह समय स्रोत के प्रवाह में बह रहा है। जिस प्रकार पानी में प्रवाहित हिमखंड (iceberg) का थोड़ा-सा अंश ही जल सतह से ऊपर रहता है, उसी प्रकार मनुष्य का थोड़ा-सा अंश ही चेतन (conscious mind) के स्तर पर ऊपर है, अधिकांश अर्धचेतन (subconscious mind) अथवा अचेतन (unconscious mind) में छुपा हुआ है।

    अतः अतियथार्थवादी कवि या चित्रकार का लक्ष्य इस अधिकांश को विवेक के अंकुश से मुक्त करके प्रकट करना होता है। इस प्रकार अतियथार्थवाद के सिद्धांतानुसार सामान्य जगत से परे जो जगत है, वही अधिक यथार्थ है, उसका चित्रण ही कलाकार का दायित्व है।

         स्वतःचालित लेखन को हर्बर्ट रीड ने अपने निबंध मिथ, ड्रीम एंड पोयममें मन की एक ऐसी अवस्था के रूप में माना है, जिसमें अभिव्यक्ति तुरंत नैसर्गिक रूप में होती है, अर्थात् भावचित्र और उसकी शाब्दिक प्रतिकृति में कोई अंतर नहीं आता ।

         शिल्पगत नियम और विधान में भी अतियथार्थवादियों की आस्था नहीं है। भाषा एवं व्याकरण के बंधन भी उन्हें स्वीकार्य नहीं हैं। वे शब्दों को स्वतःजीवित बिंबों रूप में स्वीकारते हैं, किसी प्रकार के शास्त्रीय अलंकरण में उनका विश्वास नहीं। अतियथार्थवादियों का बिंब-विधान बड़ा ही दुर्बोध होता है। कभी-कभी तो कविता, कविता न रहकर गद्य के स्तर पर पहुंच जाती है और वह भी ऐसा गद्य जिसे आसानी से समझा नहीं जा सकता।


    अतियथार्थवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ तथा मान्यताएँ


         अतियथार्थवाद की पृष्ठभूमि तथा विकास की परिस्थितियों के आधार पर इसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ तथा मान्यताएँ निम्नानुसार हैं :


    1. यथार्थ के चरम रूप को स्वीकृति: अतियथार्थवाद बाह्य जगत के यथार्थ से आगे जाकर मानव के अंतर्मन की गहरी गुफाओं में छिपे हुए यथार्थ को भी प्रत्यक्ष करता है। वह यथार्थ बाहरी संसार का हो या आंतरिक जगत का उसे पूर्ण नग्न सत्य के रूप में देखा और स्वीकार किया जाता है। दोनों ही स्तरों पर वीभत्सता और कुरूपता से नज़रें नहीं चुराई जातीं बल्कि इन्हें बेबाकी से सामने लाकर चित्रित किया जाता है। इसीलिए कई आलोचकों के मत में - साहित्य या कला के क्षेत्र में अतियथार्थवादी रचनाएँ वीभत्स, जुगुप्सापरक और समाज के स्वास्थ्य के लिए हानिकर होती हैं। यद्यपि इन रचनाओं में नग्नता तथा विकृतियों का चित्रण खुलकर हुआ है, तथापि यहाँ हम केवल प्रवृत्तियों की पहचान कर रहे हैं, उनके गुण-दोष का विवेचन नहीं। हिंदी में भी यह प्रवृत्ति मुख्यतः ऋषभचरण जैन (वैश्यापुत्र’, ‘रहस्यमयी’, ‘दिल्ली का कलंक) तथा पांडेय बेचन शर्मा उग्र’ (‘दिल्ली का दलाल’, ‘बुधुआ की बेटी’, ‘चंद हसीनों के ख़तूत’) के उपन्यासों में पाई जाती है।


    2. अवचेतन में स्थित यथार्थ को अधिक महत्व: 

     अतियथार्थवाद का मानना है कि जल में डूबे हिमखंड (iceberg) के समान मनुष्य की वास्तविक प्रकृति के भी एक बहुत छोटे से अंश को ही बाहरी जगत व्यवहार में देखा जा सकता है। उसके मानसिक यथार्थ का बहुत बड़ा अंश तो अवचेतन (subconscious mind) में स्थित होता है। संपूर्ण तथा सही यथार्थ की सच्चे मायनों में पहचान करनी हो तो उस अचेतन अंश को पहचानना और सामने लाना जरूरी है। इसके लिए स्वप्न तथा सपने जैसी मन:स्थितियों का और इन स्थितियों में उभरने वाले मानसिक बिम्बों का विश्लेषण जरूरी है।


    3. मानव की आदिम वृत्तियों का चित्रण:  अतियथार्थवाद के अनुसार अपने अंतर्मन में मानव पशु-वृत्तियों से ऊपर नहीं उठ पाया है। फ्रॉयड के सिद्धांत से उसे अपनी इस धारणा की पुष्टि मिली है कि मानव के अंतर में पशु-सुलभ वृत्तियों, वासना और भोगेच्छा दबाई जाकर कुलबुलाती रहती हैं। अतियथार्थवादी रचनाओं में इन दमित कामनाओं तथा वासनाओं का, मानव की विश्रृंखलित मन:स्थिति का, बिना किसी पर्दे या दुराव-छिपा के बेबाक चित्रण मिलता है । यौन समस्याओं तथा क्रियाओं का अंकन भी इस साहित्य में खुलकर हुआ है।


    4.रूढ़ियों का नकार: अतियथार्थवाद ने रूढ़ियों तथा पहले से मान्य परम्पराओं को अनेक स्तरों पर नकारा है। साहित्य तथा कला की विषय-वस्तु में अब तक जो प्रसंग वर्जित थे, उन्हें इसने बेहिचक उठाया है। उनकी प्रस्तुति में भी इसने पारम्परिक नैतिकता तथा मर्यादा को नकार दिया है और श्लीलता-अश्लीलता की बहस से परे स्पष्ट भाषा में नग्न यथार्थ के चित्रण को अपना लक्ष्य माना है। लेखन की रूढ़ियों को भी इसने तोड़ा क्योंकि इसकी मान्यता के अनुसार बंधनों में रहकर रचनाकार की कल्पना की मुक्त अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।


    5. रचना-प्रक्रिया: यथार्थवाद में बौद्धिकता पर बल था, किंतु अतियथार्थवाद के अनुसार रचना की प्रक्रिया सायास या सोची-समझी न होकर स्वतःस्फूर्त होती है। इसपर न बुद्धि का नियंत्रण होता है, न सौंदर्यशास्त्रीय या नैतिकतावादी नियमों का । विचार जिस प्रकार हमारे मन में अनायास स्फुरित होते हैं, उनका उसी प्रकार अनायास अनुलेखन ही रचना-कर्म है। इसलिए इस सिद्धांत में रचना को विचारों का श्रुतलेखनभी कहा गया है। जिस प्रकार आशुलिपिक या स्टेनो लिखवाई गई बात को अपनी तरफ से किसी भी प्रकार के नियंत्रण या सुधार के बिना ज्यों का त्यों उतार देता है, उसी प्रकार अतियथार्थवादी कृतिकार अपने मन में उठने वाले भावों को बेरोक-टोक ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर देता है। किसी भी प्रकार के नियंत्रण या नियमन के पक्ष में यह सिद्धांत नहीं है। रचना-प्रक्रिया और अभिव्यक्ति के स्तर पर भी इसमें यही बात लागू होती है। इसलिए इसकी कृतियों में चर्चित पात्र ही नहीं, स्वयं रचनाकार के मन का भी नग्न यथार्थ झलकता है और यथार्थवाद जहाँ वस्तुपरकता, अर्थात् बाहरी जगत के तथ्यों की ओर उन्मुख है, अतियथार्थवाद का रुख आत्मपरकता (रचनाकार की अपनी मानसिकता) की ओर है।


    अतियथार्थवाद का मूल्यांकन


         अतियथार्थवाद ने कथ्य और विषय-वस्तु के स्तर पर पारम्परिक नैतिकता के नियमों को तोड़ा तो शिल्प के स्तर पर रचना के पारम्परिक नियमों को। इस प्रकार, यह कला में एक नई मुक्ति तथा विस्तार लाया। जीवन के अज्ञात या अल्प-ज्ञात पक्षों को इसने खोला और शिल्प में भी एक अनायासता और सहजता लेकर आया। इस प्रकार यथार्थवाद की जो एक कमी थी - केवल इंद्रियों से ग्रहण करने वाले जगत से उसका सरोकार - उसे इसने दूर किया। किंतु सत्य के एक पक्ष का चित्रण करते-करते अतियथार्थवाद केवल उसी पक्ष तक सीमित हो गया।


     मानव मन की दमित-कुंठित भावनाओं का चित्रण करते-करते वह यथार्थ के अन्य रूपों से, मानव-मन के सुंदर पक्ष और बाह्य जगत के सत्य से विमुख हो चला। इसी तरह, शिल्प के क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा व्यक्तिपरकता के साथ-साथ यह अस्पष्टता और अराजकता ले आया। इन कारणों से इसकी शक्ति ही इसकी सीमा बन गई।


    निष्कर्ष


         पूर्व स्थापित मान्यताओं और नियमों की अवहेलना के फलस्वरूप अतियथार्थवादियों का साहित्य अपने स्वरूप में पूर्णतः अव्यवस्थित और अराजक है । अतियथार्थवादियों की इसी साहित्यिक अराजकता ने उनके संप्रेषण विधान को नष्ट किया जिसके कारण धीरे-धीरे यह आंदोलन कमजोर होता गया।


         अतियथार्थवादी साहित्य के प्रमुख विषय - प्रेम (Love), विद्रोह (Revolt), अद्भुत (The marvellous) और स्वातंत्र्य (Freedom) हैं। यौन लिप्साओं का खुला चित्रण ही उनकी प्रेम-स्वच्छंदता है। विद्रोहके नाम पर वे समाज, धर्म, नीति, तर्क आदि संबंधी सभी पूर्व मान्य सिद्धांतों और परंपराओं के विध्वंसक हैं।


         वे जीवन को असंगतियों (Absurdities) से भरा हुआ मानते हैं, अतः साहित्य अथवा कला में जीवन की अभिव्यक्ति का एक ही मार्ग है कि जीवन की असंगतियों, बेहूदगियों एवं विद्रूपताओं को कला-साहित्य में स्थान दिया जाए। उनका कहना है कि असंगति ही मानव मन अथवा जीवन का असली यथार्थ है (Absurdity of mind is the super reality) । 


    जीवन की इन असंगतियों के चित्रण के लिए यह आवश्यक है कि अवचेतन मन की मुक्त अभिव्यक्ति हो सके और अनुभूति को यथावत् प्रस्तुत किया जा सके। उन्होंने कला को बौद्धिकता की बेड़ियों तथा सभी प्रचलित कला-विधानों से पूर्णतः मुक्त करना उचित समझा।

         अतियथार्थवाद ने विश्व-साहित्य एवं कला पर गहरा प्रभाव डाला। साहित्य-कला के अतिरिक्त इस आंदोलन ने सिनेमा संसार को भी प्रभावित किया है।


         हिंदी साहित्य पर अतियथार्थवाद का प्रभाव बहुत कम है। प्रपद्यवादपर कुछ प्रभाव अवश्य देखा जा सकता है । नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार तथा नरेश द्वारा प्रवर्तित इस काव्य-आंदोलन के बाह्य तथा अंतर दोनों पर ही अतियथार्थवाद की छाया स्पष्ट हैं। प्रपद्यवादके कवियों ने अपना घोषणापत्र भी प्रकाशित किया था 'पस्पशा' शीर्षक से । परंतु इस काव्यांदोलन का भी कोई स्थायी प्रभाव हिंदी साहित्य पर दिखायी नहीं देता, उल्लेख जरूर होता है। 


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