रूसी रूपवाद | rusi rupvad | रूपवाद | rupvad | pashchatya kavyashastra | Russian Formalism | Formalism

रूसी रूपवाद | rusi rupvad | रूपवाद | rupvad | pashchatya kavyashastra | Russian Formalism | Formalism 

पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अंतर्गत आज हम rusi rupvad या rupvad को समझने का प्रयास करेंगे । इस सिद्धान्त को विस्तार से समझने के लिए आप नीचे का ये विडियो भी देख सकते हैं : 

'रूपवाद' का उद्भव रूस (Russia) में हुआ इसलिए इसे रूसी रूपवाद भी कहा जाता है। रूस में रूपवादी समीक्षा का सूत्रपात 19वीं शती के अन्तिम चरण में हुआ और 20वीं शती के अन्तिम वर्षों तक साहित्य समीक्षा को यह आन्दोलित करती रही।


काव्य में वस्तु (Content) और रूप (Form) दोनों में किसे अधिक महत्त्व दिया जाय, यह प्रश्न नया नहीं है। भारतीय आचार्यों और पाश्चात्य काव्य-चिन्तकों, दोनों ने इस प्रश्न पर बहुत पहले विचार किया था।

वस्तुतः कलावादी भी प्रकारान्तर से (दूसरी तरह से) रूपवाद के ही समर्थक रहे हैं। 'रूपवाद' पर विचार करने के लिए आवश्यक है कि हम काव्य में 'वस्तु' (Content) क्या है? और 'रूप' (Form) क्या है? इसे भली-भाँति समझ लें।

सामान्यतः काव्य में 'विचार' (Thought), भावानुभूति (Feeling), 'प्रवृत्ति' (Attitude) और इच्छा (Intention) आदि जिन्हें कवि व्यक्त करना चाहता है, 'वस्तु' (Content) के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।' और 'रूप' (Form) वह पद्धति, शब्द-संरचना या आवयविक संघटन है जिसके माध्यम से वस्तु (Content) को व्यक्त किया जाता है।

जो विचारक काव्य में सामाजिक मूल्यों या जीवन-यथार्थ को अधिक महत्त्व देते हैं, वे 'वस्तु' को मुख्य मानते हैं। इसके विपरीत जो काव्य को पूर्णतः स्वायत्त मानते हैं, वे 'रूप' को अधिक महत्त्व देते हैं।

इधर नयी कविता के दौर में जब से काव्य को भाषिक-संरचना मानने का प्रचलन हुआ है, 'रूपवाद' को विशेष महत्त्व मिलने लगा है। 'रूपवाद' ने भी बीसवीं शती के प्रथमार्ध में आन्दोलन का रूप ले लिया था।

ऐसा माना जाता है कि रूस में सन् 1919 ई. में विक्टर श्क्लोव्स्की (Viktor Shklovsky) ने इस आन्दोलन का सूत्रपात किया था। उसका मानना था कि 'कला' सबसे पहले शैली और तकनीक है उसके बाद और कुछ। उसकी दृष्टि में कलाकार क्या कहता है यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि वह कैसे कहता है।

यह आन्दोलन अधिक दिनों तक नहीं चल पाया और बीसवीं शती के अंतिम चरण तक आते-आते समाप्त हो गया। रूपवादियों के तर्क को ठीक से समझ लिया जाय तो उनसे मतभेद की गुंजाइश कम हो जाती है।

रूपवादी, कलाकार को एक कारीगर या शिल्पी के रूप में देखते हैं। मान लीजिए एक कुंभकार है जो गीली मिट्टी से एक सुन्दर घड़ा बना देता है। घड़े को देखकर हम पर प्रभाव उसके रूप का ही पड़ता है। मिट्टी 'वस्तु' है जो घड़े से अलग नहीं है। उसी में समाहित है। हम मिट्टी को घड़ा नहीं कहते। 'घड़ा' कहने से मिट्टी का कोई 'बिम्ब' (Image) भी हमारे मन में नहीं उभरता। इसी अर्थ में 'रूपवादी' यह मानता है कि कविता सबसे पहले तकनीक है। और तकनीक पूरी रूप-रचना है, मात्र पद्धति नहीं।

कवि ने जीवन के यथार्थ को शब्द-संघटना के सहारे एक सुन्दर कविता का रूप दे दिया है। जीवन-यथार्थ कविता में समाहित है। उसका पृथक् अस्तित्त्व नहीं रह गया है। पाठक के सामने कविता आती है। कविता अपनी पूर्णता में भाषिक संरचना ही है। पाठक पर प्रभाव इसी संरचना का पड़ता है। इससे गुजरते हुए वह कवि की अनुभूति और उसमें स्पंदित जीवन यथार्थ तक पहुँचाता है।

यह सब जानते हैं कि मात्र 'काव्य-वस्तु' कविता नहीं है। इसी प्रकार यह भी सर्वमान्य है कि कोरा 'रूप' या कोरी 'तकनीक' कविता नहीं है। दोनों के सामञ्जस्य से ही उत्तम कविता की सृष्टि हो सकती है।

रूपवाद की प्रमुख मान्यताओं को निम्न बिन्दुओं में समझा जा सकता है :

1. रूपवाद एक प्रकार का कलावादी आन्दोलन है, किन्तु इसके पीछे विज्ञान और तकनीक का परोक्ष (अप्रत्यक्ष) प्रभाव है।
2. साहित्याध्ययन जब समाज में निरपेक्ष दृष्टि से किया जाने लगा तब साहित्य के अध्ययन की प्रत्ययवादी (idealism) अवधारणाएं समाप्त हो गईं और समीक्षा पूर्णतः भाषागत हो गई। संरचना, उत्तर संरचना, विरूपीकरण, अनुपस्थिति की तलाश और नई समीक्षा आदि साहित्याध्ययन की पद्धतियां रूपवादी ही हैं।

3. रूपवाद में भाषा पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। साहित्य में प्रयुक्त भाषा विशिष्ट होती है। वस्तुतः वह भाषा का चयनित और उदात्त रूप होता है।

4. कृति की भाषा का विश्लेषण-विवेचन रचना को नए ढंग से परखने का प्रयास है। भाषा का संरचनात्मक तत्व रूपवादी समीक्षा का प्रमुख घटक है।

5. पिछली शती में रूसी रूपवादी समीक्षा सिद्धान्तों का अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 'तोदोरोव' ने प्रस्तुत किया परिणामतः पश्चिम की रूपवादी समीक्षा प्रणालियां - शैली विज्ञान, संरचनावाद आदि इससे अनुप्राणित (प्रेरित) हुई।

6. रूसी रूपवाद के प्रवर्तकों और उन्नायकों में - बोरिस एकेनवाम, विक्टर श्क्लोव्स्की, रोमन जैकोब्सन, बोरिस तोमरस्जेब्स्की आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

7. रूपवादी समीक्षा के दो केन्द्र रहे हैं - मॉस्को और पेट्रोगार्ड। मॉस्को में 'भाषिकी' केन्द्र की स्थापना 1915 में हुई जिससे जुड़े अधिकांश सदस्य भाषाविद् थे जबकि 'पेट्रोगार्ड' केन्द्र से जुड़े लोग 'काव्य-भाषा' विमर्श में अधिक रुचि लेते रहे।

रोमन जैकोब्सन ने 1921 ई. में 'आधुनिक रूसी कविता' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की जो 'भाषायी (रूपवादी) तत्वों' को केन्द्र में रखकर लिखी गई।

8. रूपवादियों का मूल मंतव्य (मत, प्रस्ताव, निर्णय) कविता की 'भाषिक संरचना' या उसकी 'टेक्नीक' है। कविता में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है उसका ‘रूप’। इसीलिए रूपवादी समीक्षा संरचनावाद, शैली विज्ञान, नई समीक्षा आदि के समानान्तर चलने वाला आन्दोलन है।

9. काव्यकला का सम्बन्ध कला की निर्मित (डिजाइन) से है न कि कला में अन्तर्निहित प्रत्यय (मैसेज या थाट) से। कविता में काव्य भाषा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।

10. कविता भाषा का विशिष्ट चयन और अनुप्रयोग है। रूपवादी समीक्षक का ध्यान परम्परित भाषिक इकाइयों (अलंकार, बिम्ब आदि) में पूर्व से निर्मित मानसिक बिंबों से हटकर कुछ विचित्रता, अजनबीपन की ओर जाता है। काव्य भाषा में कुछ अद्भुत अजनबीयता को विकसित करके तलाशना रूपवाद का प्रमुख तत्व है।

11. रूपवादी कुल मिलाकर स्वयं को रूप तक सीमित कर लेते हैं और काव्य भाषा में निहित विचित्रता और चमत्कार की तलाश करते हैं।

12. भारतीय काव्यशास्त्र में निरुपित (अच्छी तरह से समझाना) रीति, वक्रोक्ति सम्प्रदाय भाषा से जुड़े सम्प्रदाय हैं, किन्तु उनका लक्ष्य काव्य सौन्दर्य और लालित्य (रमणीयता) की तलाश करना है, जबकि रूपवाद का लक्ष्य भाषागत रचना की स्वायत्तता पर बल देना है।

13. रूपवादी रूप (शब्द विधान) को अर्थ से भिन्न करना कठिन मानते हैं। शब्द शक्तियों के प्रसंग में भारतीय आचार्य यह स्वीकार करते हैं कि काव्य में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ शब्दकोशीय अर्थ से भिन्न अर्थ की ओर संकेत करते हैं। रूपवादी प्रजनात्मक व्याकरण (एक भाषा वैज्ञानिक सिद्धांत) के अन्तर्गत इसका विश्लेषण करते हैं।

14. रूपवादी काव्य वस्तु (कथ्य, प्लाट, कन्टेन्ट) को नजरंदाज करके रूप के आधिपत्य पर बल देते हैं। रूप ही वह गवाक्ष है जहाँ से रचना की ओर झांका जा सकता है। रूपवादी कविता को तकनीक, प्रविधि और रूप में निहित मानते हैं।

15. रूसी रूपवादियों के अनुसार साहित्य को दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, मार्क्सवाद आदि के आलोक में नहीं देखा जा सकता। रूपवादियों के अनुसार कृति की साहित्यिकता कृतिकार के विशिष्ट भाषा प्रयोगों में निहित है, उसे अन्यत्र खोजना व्यर्थ है।

16. रूपवाद है अपरिचित से परिचित होना। कविता में दिन-प्रतिदिन की भाषा अपरिचित बनाई जाती है। भाषा का यह नयापन ही कविता का 'रूप' है। निश्चय ही रूपवाद साहित्य की परम्परित और प्रचलित दृष्टि को नकारता है।

निष्कर्ष

रूसी 'रूपवाद' के पुरोधा शक्लोव्स्की ने कहा था- "कला हमेशा जिन्दगी से मुक्त होती है। इसका ध्वज शहर की चारदीवारी पर फहराते हुए झंडे के रंग को प्रतिबिम्बित नहीं करता।" उसका निश्चित मत था कि - "कला-रूपों का विवेचन कला-नियमों द्वारा ही होना चाहिए।"

'रूस' में तो यह आन्दोलन समाप्त हो गया किन्तु यूरोप के अन्य देशों में इसका प्रभाव पड़ा और कला-समीक्षा के क्षेत्र में इसकी प्रासंगिकता बनी रही। भाषिक-संरचना को केन्द्र में रखकर काव्य की समीक्षा करने वाली समीक्षा-पद्धतियों को इससे बल मिला। 'नयी समीक्षा', 'शैली-विज्ञान' और 'संरचनावाद' आदि सभी समीक्षा-पद्धतियाँ एक प्रकार से 'रूपवादी' ही मानी जाएंगी।

वस्तु और शिल्प दोनों संश्लिष्ट (मिलकर) होकर जब काव्य बन जाते हैं, तब न 'वस्तु' की अलग सत्ता रह जाती है, न 'शिल्प' की। दोनों अपना अस्तित्त्व निरस्त करके मात्र 'काव्य' रह जाते हैं। और 'काव्य' के रूप में पहचानी जाने वाली यह रचना मात्र भाषिक-संरचना या रूप होती है।

सिद्धान्त के स्तर पर तो यह ठीक है किन्तु व्यवहार में होता यह है कि 'रूपवाद' काव्य को जीवन से काट देता है। इसीलिए इसके सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए डॉ.बच्चन सिंह कहते हैं-

"वस्तुतः 'रूपवाद', 'कलावाद' का ही दूसरा नाम है। इस 'कलावाद' ने समीक्षा के क्षेत्र में काफी कहर ढाया है। साहित्य को जीवन से अलग करके सिर्फ संरचना तक ही अपने को सीमित कर लेना प्रतिक्रियावादी मनोवृत्ति की चरमसीमा है। साहित्य के आस्वाद से भी इसे कुछ लेना-देना नहीं है। जिस संवेदन-शून्य भाषा यानी रोजमर्रा की भाषा को संवेदन-पूर्ण बनाने की चेष्टा की जाती है उसमें संवेदना क्या है ? 'रूपवाद' इस पर भी विचार नहीं करता।"

सारांश यह है कि अन्य अतिरेकी आन्दोलनों की तरह rusi rupvad या rupvad  भी एक कला- आन्दोलन है और इसे पूर्णतः स्वीकार करना समीक्षा के लिए किसी भी प्रकार उचित नहीं माना जा सकता।

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