आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की आलोचना पद्धति | Acharya Nanddulare Vajpeyi Ki Alochana Paddhati

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी स्वच्छन्दतावादी आलोचना के प्रमुख स्तम्भ माने जा सकते हैं । स्वच्छन्दतावादी समीक्षा को पाश्चात्य रोमांटिक समीक्षा का भारतीय संस्करण कहा  जा सकता है । वाजपेयी जी ने भारतीय रस सिद्धान्त को पाश्चात्य संवेदनीयता से जोड़कर अपने काव्यादर्श की घोषणा करते हुए कहा – काव्य का महत्व तो काव्य के अन्तर्गत ही है, किसी बाहरी वस्तु में नहीं। काव्य और साहित्य की स्वतंत्र सत्ता है, उसकी स्वतंत्र प्रक्रिया है और उसकी परीक्षा के स्वतंत्र साधन हैं ।”

    अर्थात् उनके अनुसार साहित्य की स्वतंत्र सत्ता की स्वीकृति ही स्वच्छन्दतावाद का केंद्रीय तत्व है ।

    आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की प्रसिद्धि हिंदी में सौष्ठववादी आलोचक के रूप में है। सौष्ठववादी समीक्षा पद्धति में काव्य के सौन्दर्योद्घाटनपर विशेष बल दिया जाता है, शास्त्रीय समीक्षा पर नहीं।

    आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद’, निराला और पन्त की समीक्षा स्वच्छन्दतावादी एवं सौन्दर्य-बोधक मूल्यों की दृष्टि से की और इन्हें छायावाद की वृहतत्रयी के रूप में प्रतिष्ठित  किया ।

    उनके अनुसार- “काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों से ऊपर उठकर सौन्दर्य का उद्घाटन करना ही आलोचक का प्रधान कार्य है।”

    आलोचक अपनी प्रतिभा से भावों के उदात्त स्वरूप एवं मार्मिकता का विश्लेषण कर स्वयं तो आनन्दित होता ही है, पाठक को भी इसी भावभूमि पर ले जाता है।

    आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी छायावादको प्रतिष्ठित करने वाले समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने छायावादी काव्य की विस्तृत समीक्षा करते हुए इस काव्यधारा को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। 

    छायावादी काव्य का विरोध सरस्वती, विशाल भारत, सुधा एवं प्रभा जैसी पत्रिकाएं एकजुट होकर कर रही थीं, ऐसे समय में छायावादी कवियों को वाजपेयी जैसा प्रखर समर्थक मिला जिसने तर्कपूर्ण एवं प्रामाणिक ढंग से छायावादी काव्य की व्याख्या सामाजिक सन्दर्भों में करते हुए छायावादी काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन किया।

    उन्होंने सन् 1931 ई. में छायावादी वृहत्रयी प्रसाद, पन्त और निराला पर तीन पृथक् पृथक् निबन्ध लिखकर इनके काव्य सौन्दर्य से पाठकों को परिचित कराया और यह निरूपित किया कि प्रसाद के काव्य में मानवीय भूमि, निराला के काव्य में बुद्धि तत्वतथा पन्त के काव्य में 'कल्पना तत्व' की प्रधानता है।

    जिस समय छायावादी कवि अपने प्रखर आलोचकों- बदरीनाथ भट्ट, बनारसीदास चतुर्वेदी, पद्मसिंह शर्मा, हेमचन्द्र जोशी, ललित किशोर सिंह के प्रहार से कुण्ठित हो रहे थे उस समय उन्हें नन्ददुलारे वाजपेयी, शान्तिप्रिय द्विवेदी एवं डॉ.नगेन्द्र जैसे समर्थ समीक्षक अपने समर्थकों के रूप में प्राप्त हुए। जिन्होंने शुद्ध सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से छायावादी काव्य के सौन्दर्य का मूल्यांकन किया तथा यह स्थापित किया कि छायावादी कविता हिंदी  काव्य की महान उपलब्धि है।

    छायावादी या स्वच्छन्दतावादी आलोचना

    स्वच्छन्दतावादी आलोचना के प्रमुख स्तम्भ पं० नन्ददुलारे वाजपेयी माने जा सकते हैं। वाजपेयीजी ने भारतीय रस-सिद्धान्त को पाश्चात्य संवेदनीयता से जोड़कर इन शब्दों में अपने काव्यादर्श की घोषणा की-काव्य का महत्त्व तो काव्य के अन्तर्गत ही है, किसी बाहरी वस्तु में नहीं। काव्य और साहित्य की स्वतन्त्र सत्ता है, उसकी स्वतंत्र प्रक्रिया है और उसकी परीक्षा के स्वतंत्र साधन हैं। काव्य तो मानव की उद्भावनात्मक या सर्जनात्मक शक्ति का परिणाम है। उसके उत्कर्ष-अपकर्ष का नियन्त्रण वाह्य स्थूल व्यापार या वाह्य बौद्धिक संस्कार और आदर्श थोड़ी ही मात्रा में कर सकते हैं।

    ठीक यही घोषणा, अपनी काव्य- प्रतिभा के उन्मेष काल में, प्रसाद जी ने इन्दुके माध्यम से की थी- साहित्य का कोई लक्ष्यविशेष नहीं होता और उसके लिए कोई विधि या निबन्धन नहीं है, क्योंकि साहित्य स्वतन्त्र प्रकृति, सर्वतोगामी प्रतिभा के प्रकाशन का परिणाम है।

    इससे प्रकट है कि द्विवेदी-युग के भीतर से ही स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियाँ स्फुटित होने लगी थीं। साहित्य की स्वतन्त्र सत्ता की स्वीकृति ही स्वच्छन्दतावाद का केन्द्रीय तत्त्व है। कल्पनाचारुता, आनन्दप्रियता, भावात्मकता, मानवतावाद, राष्ट्रीयता, रहस्यात्मकता आदि विशेषताएँ तो इसके अनुसारी परिणाम के रूप में इसमें स्वतः आ जाती हैं।

    स्वच्छन्दतावादी समीक्षा को पाश्चात्य रोमांटिक समीक्षा का भारतीय संस्करण कहा जा सकता है। आलोचकों ने पन्तजी के पल्लवकी तुलना वर्ड्सवर्थ और कोलरिज के लिरिकल बैलेड्ससे की है और उसे हिंदी की रोमांटिक कविता का मेनीफेस्टो बताया है।

    हिंदी के स्वच्छन्दतावादी कवियों पर वर्ड्सवर्थ, शेली, कीट्स आदि का प्रभाव भी स्वीकार किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में हिंदी स्वच्छन्दतावादी या छायावादी आलोचना को पाश्चात्य रोमांटिक साहित्य-शास्त्र के समकक्ष सरलता से रखा जा सकता है। दोनों एक ही प्रकार की परिस्थितियों की उपज भले ही न हों या दोनों में सभी बातों की समानता भी चाहे न हो; किन्तु काव्य की स्वतन्त्र सत्ता, उसमें व्यक्ति-चेतना का महत्त्व, कल्पना-तत्त्व की प्रधानता, प्रकृति के प्रति जिज्ञासा, विस्मय और प्रेम का भाव तथा आनन्दवादी उद्देश्य दोनों में ही समान रूप से मान्य है।

    पंतजी की भाँति अन्य छायावादी कवियों ने भी अपनी रचनाओं के साथ लम्बी भूमिकाएँ लिखकर छायावाद की विशेषताओं को स्पष्ट किया और प्रकारान्तर से छायावादी समीक्षा-दृष्टि को पुष्ट और समृद्ध किया।

    छायावादी या स्वच्छन्दतावादी आलोचकों में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, शान्तिप्रिय द्विवेदी और डॉ० नगेन्द्र उल्लेखनीय हैं।

    नन्ददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद, निराला और पन्त की समीक्षा स्वच्छन्दतावादी एवं सौन्दर्य-बोधक मूल्यों की दृष्टि से की और इन्हें छायावाद की वृहत्त्रयी के रूप में प्रतिष्ठित किया। आचार्य शुक्ल की नैतिक एवं लोक-मंगल-केन्द्रित आलोचना-दृष्टि का अतिक्रण करके आपने सौन्दर्यबोधात्मक एवं सांस्कृतिक आलोचना-दृष्टि की प्रतिष्ठा की। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए यह ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य समझा जायगा।

    शान्तिप्रिय द्विवेदी ने गाँधी एवं रवीन्द्र की मानववादी दृष्टि को छायावाद की केन्द्रीय चेतना माना। उनकी समीक्षा-पद्धति में तर्कपूर्ण विश्लेषण का अभाव लक्षित होता है। वे छायावाद के रागात्मक प्रभाव से अभिभूत थे। उनकी समीक्षा इसी प्रभावाभिव्यक्ति के रूप में सामने आई।

    डॉ० नगेन्द्र ने 1938 ई० में सुमित्रानन्दन पंत की समीक्षा छायावादी- स्वच्छन्दतावादी (सौन्दर्य बोधात्मक) मूल्यों की दृष्टि से की। यह समीक्षा अधिक संतुलित एवं तर्कपूर्ण है।

    1940 ई० तक आते-आते छायावाद ह्रासोन्मुख हो गया। स्वयं छायावादी कवि कल्पना के स्वप्नलोक से उतरकर धरती पर आ गए। इसके साथ ही स्वच्छन्दतावादी आलोचना का भी हास हुआ और देखते-देखते प्रगतिवादी कविता का दौर आरम्भ हुआ। इसके साथ ही प्रगतिवादी या मार्क्सवादी समीक्षा-पद्धति का उदय हुआ।

    छायावादी या स्वच्छन्दतावादी आलोचना के विकास काल में ही हिंदी में एक अन्य आलोचना-पद्धति का उन्मेष देखा गया जिसे प्रभाववादी समीक्षा कहते हैं। इसके उन्मेष के मूल में भी छायावाद की भावाकुलता ही प्रधान थी।

    प्रमुख समीक्षात्मक कृतियां 

    आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की प्रमुख समीक्षात्मक कृतियों के नाम हैं- आधुनिक साहित्य, नया साहित्य - नए प्रश्न, हिंदी साहित्य-बीसवीं शती, कवि निराला, प्रकीर्णिका, राष्ट्रीय साहित्य, महाकवि सूरदास, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद आदि

    वाजपेयी जी की समीक्षा पद्धति तर्कपूर्ण, गम्भीर एवं मर्म को उद्घाटित करने वाली है। अपने मौलिक दृष्टिकोण, नव्यतर समीक्षा मानदण्डों, तलस्पर्शी दृष्टि एवं मार्मिक व्याख्या के कारण वे हिंदी के मूर्धन्य आलोचकों में गिने जाते हैं।

    आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समीक्षात्मक दृष्टिकोण

    ‘’हिन्दी-साहित्य: बीसवीं शताब्दी की भूमिका में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए वाजपेयी जी ने आलोचना (समीक्षा) संबंधी अपने सात मापदण्डों का उल्लेख किया है, जो कि इस प्रकार हैं:

         1. कवि की अन्तर्वृत्तियों (inner instincts) का अध्ययन

    2 2. कलात्मक सौष्ठव का अध्ययन

    3 3. टेकनीक (शैली) का अध्ययन

    4 4. समय और समाज तथा उनकी प्रेरणाओं का अध्ययन

    5  5. कवि की जीवनी और रचना पर उसके प्रभाव का अध्ययन

    6 6. कवि के दार्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों का अध्ययन

    7. काव्य के जीवन संबंधी सामंजस्य और संदेश का अध्ययन

    इस प्रकार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी मूलत: कवि की अन्तर्वृत्तियों और कलात्मक सौष्ठव पर बल देते हैं ।

    इसके अतिरिक्त आधुनिक-साहित्य की भूमिका में वाजपेयी जी निम्नलिखित चार पश्चिमी समीक्षा-पद्धतियों से बचने की बात करते हैं :


    1    1.वैयक्तिक मनोविज्ञान पर आधारित (फ्रायड, जुंग और एडलर से प्रभावित)

    2    2. समाजवादी समीक्षा (मार्क्सवादी)

    3   3. कला-विज्ञानवादी (aesthetic) पुरानी परम्परा

          4. उपयोगितावादी या नीतिवादी (आई.ए.रिचर्ड्स द्वारा उद्घाटित) समीक्षा

     आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की समीक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ 

    आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की समीक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताओं का उद्घाटन निम्न बिन्दुओं में किया जा सकता है:

    1. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी शुक्लोत्तर समीक्षक हैं। उन्हें सौष्ठववादी समीक्षक माना जाता है, क्योंकि समीक्षा में वे सौन्दर्य के उद्घाटन पर विशेष बल देते हैं। शैली की दृष्टि से वाजपेयी जी की समीक्षा व्याख्यात्मक और विवेचनात्मक है ।

    2. वाजपेयी जी छायावाद के समर्थक हैं। उन्होंने छायावादी काव्य के सौन्दर्य का उद्घाटन सौन्दर्यशास्त्रीयदृष्टि से करते हुए छायावादी काव्य को हिंदी काव्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि माना और इस प्रकार छायावाद के उन आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया जो एकजुट होकर छायावादी कवियों का विरोध कर रहे थे।

    3. वाजपेयी जी की समीक्षा पद्धति तर्कपूर्ण, गम्भीर एवं मर्म को उद्घाटित करने वाली है।

    4. जिस प्रकार शुक्ल जी ने तुलसी को अपनी आलोचना का मानदण्ड बनाया था उसी प्रकार वाजपेयी जी ने प्रसादको अपनी कसौटी बना रखा था।

    5. वाजपेयी जी की समीक्षा पद्धति शास्त्रीय सिद्धान्तों से परे सौन्दर्यवादी समीक्षा पद्धति थी। वे “काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों से ऊपर उठकर कृति के सौन्दर्य का उद्घाटन करना ही आलोचक का प्रमुख कार्य मानते थे।”

    6. उनकी धारणा थी कि “हम कवि की आत्मा के साथ अपनी आत्मा को मिलाकर विकास की प्रत्येक दिशा में उसके साथ समन्वय करें” ऐसा करने पर ही हम उसकी कृतियों की सच्ची आलोचना कर सकेंगे।

    7. वाजपेयी जी की समीक्षा विषय प्रधान न होकर विषयी प्रधान है जिसमें कवि को अधिक महत्व मिल गया है।

    8. प्राचीन रस सिद्धान्त को इन्होंने पाश्चात्य समीक्षा के संवेदनातत्व से मिलाकर व्यापक सत्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। वे लिखते हैं “रस काव्य की आत्मा है' इससे हमारा अभिप्राय यह है कि प्रत्येक सत्काव्य में मानव समाज के लिए आह्लादकारिणी भावात्मक, नैतिक और बौद्धिक अनुभूतियों का संकलन होता है।”

    9. वाजपेयी जी की समीक्षा पद्धति की मुख्य विशेषता उनकी समन्वयशीलता है। इन्होंने रसवाद एवं स्वच्छन्दतावाद का समन्वय किया। वे आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति को साहित्य मानते हैं।

    10. वाजपेयी जी ने अपनी समीक्षा पद्धति में सौन्दर्यके उद्घाटन पर सर्वाधिक बल दिया है। सूरदास को वे एक ऐसा कवि मानते हैं जो रूप सौन्दर्य एवं भाव सौन्दर्य के उद्घाटक हैं।

    11. वाजपेयी जी की समीक्षा में व्याख्यात्मक, विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक पद्धतियों का आश्रय लिया गया है। इन्होंने साकेत की तुलना कुरुक्षेत्र, रामचरितमानस एवं कामायनी से की है।

    12. वाजपेयी जी की समीक्षा पद्धति सौन्दर्यबोध से अनुप्राणित है। वे घटनाओं पर उतना बल नहीं देते जितना रस सृष्टि एवं सौन्दर्य बोध पर। प्रसाद उनके पसंदीदा कवि हैं तथा उन्हें वे अपनी समीक्षा का मापदण्डबनाने से भी नहीं चूकते।

    13. वाजपेयी जी की समीक्षा वादमुक्त है। उनकी धारणा है कि यदि साहित्यिक रचनाएं वादमुक्त हों तो उनमें सर्वजनसुलभ रस व्याप्त रहता है।

    14. भावात्मक निष्पत्ति और रूपात्मक सौन्दर्य के विश्लेषण को वे समीक्षा के दो प्रतिमान मानते हैं।

    निष्कर्ष


    समग्रतः यह कहा जा सकता है कि वाजपेयी जी हिंदी के एक समर्थ समीक्षक हैं। उन्हें सौष्ठववादी, स्वच्छन्दतावादी या छायावादी समीक्षक कहना उपयुक्त है। वे साहित्य को रस की कसौटी पर नहीं कसते, तथापि वे रसवाद के विरोधी नहीं कहे जा सकते। नैतिक मूल्यों के पक्षधर होने पर भी वे सामाजिक मूल्यों के समर्थक हैं।

    उनकी मान्यता है कि “मानव जीवन से जुड़ी हुई संवेदनाओं को ही साहित्यकार काव्य में प्रस्तुत करता है अतः आलोचक का मूल कार्य उन संवेदनाओं को पकड़ना है।”

    वाजपेयी जी कवि की अनुभूति के साथ-साथ अभिव्यक्ति के उपादानों की भी सम्यक् परीक्षा पर बल देते हैं। वे कवि की संवेदना और भाषा में गहरा सम्बन्ध भी स्वीकारते हैं। उक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वाजपेयी जी ने हिंदी समीक्षा को दृढ़तर आयामों पर प्रतिष्ठित कर उसे और पुष्ट और समृद्ध बनाया।

    इस प्रकार वाजपेयी जी की समीक्षा-शैली सौन्दर्य की खोज और उसकी व्याख्या की शैली है। जहाँ सौन्दर्य हैं वहाँ वे उसके मर्म के भावक (भाव उत्पन्न करने वाला, भावना करने वाला, भक्त या प्रेमी) बनकर उसकी विशेषता और प्रभाव को व्यक्त करने लगते हैं । जहाँ वह नहीं है या उस पर आवरण है वहाँ वे आवेश में आ जाते हैं और विरोध या व्यंग्य करने लगते हैं। विवेचन कि यह शैली उन्होंने पाश्चात्य समीक्षा-पद्धति को अपने अनुकूल बनाकर निर्मित की है ।

    वाजपेयी जी ने आलोचना के मान के रूप में सौन्दर्य की ऐसी चेतना को प्रतिष्ठित करना चाहा है, जिसमें व्यक्ति और समाज, राष्ट्र और विश्व, बाहर और भीतर; बुद्धि और भाव, वस्तु और रूप, नैतिकता और कला, प्राचीन और नवीन सभी मिलकर एक संवेदना या संस्कार बन गए । अपनी इस विशेषता के कारण वाजपेयी जी हिन्दी-आलोचना के आधार-स्तम्भ के रूप में सदैव मान्य रहेंगे ।


     

     

     

    कोई टिप्पणी नहीं

    Blogger द्वारा संचालित.