अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत | Arastu Ka Anukaran Siddhant

 अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत|Arastu Ka Anukaran Siddhant 

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत | Arastu Ka Anukaran Siddhant


        पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में यूनानी विद्वान अरस्तू (384 ई.पू.-322 ई.पू.) का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है । वे एक ओर तो प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के शिष्य थे तो दूसरी ओर विश्व-विजेता सिकंदर महान के गुरु होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है।

     

     उन्होंने अपने जीवन में लगभग चार सौ ग्रन्थों की रचना की । उनके साहित्य-संबंधी विचार काव्य-शास्त्र (Poetics) एवं भाषण-शास्त्र (Rhetorics) में उपलब्ध होते हैं। इन्हीं के आधार पर हम अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे ।


            यूनानी भाषा के ‘मिमेसिस’ (Mimesis) शब्द का अंग्रेजी में रूपांतरण किया गया है- इमिटेशन (Imitation) और हिंदी में इसका अनुवाद है अनुकरण या अनुकृति । पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन में अनुकरण सिद्धांत का बड़ा व्यापक प्रभाव और महत्व है। इसका संबंध काव्य की रचना प्रक्रिया से है ।


        अरस्तू ने प्लेटो के अनुकरण संबंधी मत का संशोधन और विशद विश्लेषण करके उसे एक कला सिद्धांत के रूप में स्थापित किया । काव्य और कला सच्चे रूप में जीवन और प्रकृति का अनुकरण है, यह मान्यता प्रायः सुकरात और उसके बाद के विचारकों की रही । 


            जर्मन और रूसी विचारकों ने भी काव्य और कला को जीवन और प्रकृति का अनुकरण माना और इस प्रकार अनुकरण का सिद्धांत पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में एक व्यापक सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । इस सिद्धांत के मूल सूत्र हमें प्लेटों और अरस्तू के विचारों में प्राप्त होते हैं । उन्हीं का किसी न किसी रूप से व्यवहार हमें परवर्ती विचारकों में मिलता है ।


        अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त एक स्तर पर प्लेटो के अनुकरण सिद्धान्त की प्रतिक्रिया है और दूसरे स्तर पर उसका विकास भी । 


    महान दार्शनिक प्लेटो ने कला और काव्य को सत्य से तीन गुना दूर कहकर उसका महत्व बहुत कम कर दिया था। 


        उसके शिष्य अरस्तू ने अनुकरण में पुनर्सृजन (Re-creation) का समावेश किया । उनके अनुसार अनुकरण हूबहू नकल नहीं हौ बल्कि पुन:प्रस्तुतीकरण है जिसमें पुनर्सृजन भी शामिल होती है ।    


    अनुकरणात्मक कलाएं (Fine Arts)


        प्लेटो कलाओं के दो वर्ग मानता है – (1) उपयोगी कला (Useful Arts) और (2) अनुकरणात्मक कला (Fine Arts)। 


    प्लेटो के अनुसार उपयोगी कलाएं मानव जीवन के उपयोग में आती रहती हैं । इसे व्यावहारिक कला भी कह सकते हैं । बढ़ई की कला अर्थात् बढ़ई द्वारा निर्मित पलंग, मेज या कुर्सी उपयोगी कला के अंतर्गत है । उपयोगी कला सत्य के अधिक निकट होती है। क्योंकि बढ़ई, ईश्वर रूपी विचार या सत्य की छाया (विश्व या प्रकृति) का अनुकरण करता है और चित्रकार (कलाकार) बढ़ई द्वारा निर्मित कृति का अनुकरण करता है, इसलिए सभी कलाएं सत्य से तिगुनी दूर पर हैं।


     इसका तात्पर्य यह है कि बढ़ई की कला, काव्यकला या चित्रकला से अधिक मूल्यवान है, क्योंकि अनुकरणात्मक कलाएं वास्तविकता से बहुत दूर होती हैं ।


    प्लेटो का विचार है कि अनुकरणात्मक कलाएं अच्छी नहीं हैं।  अनुकरण करने वाले को न तो किसी वस्तु के उपयोग का ज्ञान रहता है और न उसके निर्माण का ही। वह वास्तविक वस्तु न प्रस्तुत करके वस्तु का आभास मात्र देता है, इसलिए अनुकरणात्मक कलाएं (काव्यकला, चित्रकला, संगीतकला आदि) सत्य से तिगुनी दूर है। 


            वास्तविक सत्य निर्माता (ईश्वर) की कल्पना में था । नाटक के संबंध में भी यही बात है, अभिनेता वास्तविक चरित्र का अनुकरण नहीं करता, क्योंकि वह जिस पात्र का अभिनय करता है उसने उसे कभी नहीं देखा। वह तो नाटककार द्वारा अपनी कल्पना से निर्मित चरित्र का अनुकरण करता है और नाटककार ने स्वयं भी उस चरित्र को नहीं देखा । इस प्रकार अनुकरणात्मक कलाएं वास्तविकता से बहुत दूर है ।


         प्लेटो के विचार से अनुकरण या अनुकृति एक नाटक या क्रीड़ा है, अतः उसका कोई गंभीर महत्व नहीं है । वह मनोरंजन का एक प्रकार है न कि गंभीर कार्य । उसके अनुसार कवि अपनी कविता द्वारा वीर पुरुषों की झांकी तो दे सकता है, पर वीर पुरुषों का निर्माण नहीं कर सकता।


            किन्तु यदि किसी काव्य में सत्य और ज्ञान की पूर्ण प्रतिष्ठा हो, तो वह ऐसे काव्य का स्वागत करेगा (Republic III, 386 A) अगर अनुकरण का विषय मंगलकारी है और अनुकरण पूर्ण एवं उत्तम है तो वह स्वागत योग्य है, परंतु अनुकरण प्रायः अधूरा और अपूर्ण होता है ।

        अरस्तू ने उक्त क्रम को बदल दिया । उसका कहना है कि अनुकरणात्मक कलाएं उपयोगी कलाओं की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट एवं सत्य के निकट हैं  


    उसके अनुसार उपयोगी कलाएं और अनुकरणात्मक कलाएं मूलभूत ूप से एक ही हैं। दोनों प्रकार की कलाएं अनुकरण करती हैं । उपयोगी कला भी प्रकृति का अनुकरण करती है। सभी उपयोगी कलाएं प्रकृति के नियमों का अनुसरण या अनुकरण करती हुईं प्रकृति का उद्देश्य पूरा कर देती हैं । 


            अनुकरणात्मक कलाएं भी प्रकृति के ही नियमों का अनुसरण करती हुई अधूरे काम को पूरा कर देती हैं। दोनों में केवल अंतर यह है कि अनुकरणात्मक कलाएं कार्यरत मनुष्य (man in action) का अनुकरण करती हैं अर्थात् मनुष्य के भावों, विचारों और कार्यों को प्रस्तुत करती हैं ।

     

    अनुकरणात्मक कलाओं के वर्गीकरण का आधार


        अरस्तू के अनुसार सभी कलाओं का मूल तत्व अनुकरण ही है, किन्तु वे तीन कारणों से एक-दूसरे से अलग हैं – (1) विषय वस्तु, (2) माध्यम, साधन या उपकरण और (3) शैली ।


    1. विषय वस्तु (Objects)– अरस्तू का मत है कि इन अनुकरणात्मक कलाओं के विषय हैं कार्यरत मनुष्य (man in action) और मनुष्य या तो उच्च कोटि के होंगे, या निम्न कोटि के। तात्पर्य यह है कि ये कलाएं जीवन को तीन रूपों में प्रस्तुत करती हैं –


    (1) वास्तविक जीवन से अच्छे रूप में,

    (2) वास्तविक जीवन से निम्न रूप में और

    (3) वास्तविक जीवन में जो रूप है उस रूप में ।

         ट्रैजेडी (त्रासदी) में उच्चतर जीवन का अनुकरण किया जाता है और कामेडी में निम्न रूप का ।


    2. माध्यम (Medium) – सभी कलाओं के माध्यम या उपकरण अलग-अलग हैं । चित्रकला और मूर्तिकला के साधन या माध्यम रंग और रूप हैं, नृत्यकला का माध्यम लय है, संगीतकला में स्वर, लय और संगति माध्यम है और काव्यकला का माध्यम लय, संगति और भाषा है ।


        अरस्तू काव्य के लिए छंद को अनिवार्य नहीं मानते इसलिए कोई रचना गद्य में है या पद्य में, यह प्रश्न महत्वहीन है । देखना यह है कि रचना का प्रयोजन क्या है । प्रयोजन यदि आनंद है तो काव्य है और प्रयोजन यदि केवल ज्ञान प्रदान करना है तो वह अकाव्य है ।


    3. शैली या पद्धति (Manner)- काव्य की शैली या तो वर्णात्मक हो सकती है या नाटकीय । कुछ कवि वर्णात्मक शैली का उपयोग करते हैं, वे या तो प्रथम पुरूष के रूप में, या अन्य पुरूष के रूप में वर्णन करते हैं । नाटकीय शैली में पात्र स्वयं संवादों द्वारा अपनी बात कहते हैं, लेखक और कवि अपनी ओर से कुछ नहीं बोलता ।


    अनुकरण का अर्थ



        अरस्तू ने प्लेटो के समान ही स्वीकार किया है कि कला अनुकरण प्रधान है । काव्य भी कला है, इसलिए वह भी अनुकरण प्रधान है । किन्तु जब तक हम यह न जान लें कि अनुकरण का अर्थ क्या है, तब तक अरस्तू की काव्य विवेचना हम नहीं समझ सकते हैं । अतः अनुकरण के अर्थ को विभिन्न दृष्टिकोणों से  समझ लेना चाहिए ।


    1. काव्य प्रकृति की सर्जन प्रक्रिया का अनुकरण है (Poetry is an imitation of nature’s creative process) :


            प्लेटो और अरस्तू दोनों ने यह स्वीकार किया है कि कला प्रकृति का अनुकरण है प्लेटो ने  अनुकरण शब्द का अर्थ हूबहू नकल करने के अर्थ में किया । कवि या कलाकार प्रकृति का हूबहू नकल करते हैं । प्रकृति (दृश्यमान जगत) जिस रूप में है, उसी रूप में कवि उसका नकल करते हैं । इसे यथार्थ नकल भी कहा जा सकता है।

        अरस्तू ने कला प्रकृति का अनुकरण है इस वाक्य का भिन्न अर्थ में प्रयोग किया है । यहाँ पर कला का तात्पर्य केवल अनुकरणात्मक कला से है और प्रकृति का तात्पर्य मनुष्य की प्रकृति से है । मानव से इतर प्रकृति का (भूदृश्य, पर्वत नदी, पशु आदि) अनुकरण करना अरस्तू के अनुसार अनुकरणात्मक कला का कार्य नहीं है । मानव जीवन ही वह प्रकृति है जिसका कला अनुकरण करती है ।

            कला और प्रकृति के अर्थ को समझ लेने के बाद अब यह समझना आवश्यक है कि कला मानव जीवन (या प्रकृति) को किस रूप में और किस प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत करती है, अर्थात् हमें यह देख लेना चाहिए कि काव्य और वास्तविक जीवन में क्या संबंध है ?

        अरस्तू के अनुसार अनुकरण एक सर्जन क्रिया है। कवि या कलाकार प्रकृति की दिखाई देने वाली वस्तुओं का नहीं, वरन् प्रकृति की सर्जन प्रक्रिया (creative process) का अनुकरण करता है । 

      

            प्लेटो के अनुसार अनुकरण का विषय बाह्य प्रकृति की वस्तुएँ हैं, तो अरस्तू के अनुसार बाह्य प्रकृति में निहित प्रकृति के नियम अनुकरण के विषय हैं । नियम यह है कि प्रत्येक वस्तु पूर्णरूप से विकसित होना चाहिए, पूर्ण विकास ही उसकी प्रकृति है।   किन्तु कई कारणों से प्रकृति इस पूर्ण विकास को प्राप्त नहीं कर पाती है ।


             कवि या कलाकार उन अवरोधक कारणों को हटाकर प्रकृति के छोड़े हुए कार्य को पूरा करता है। तात्पर्य यह है कि कवि या कलाकार अपनी कल्पना, भावना के द्वारा जो उसकी मानसिक कल्पना में प्रस्तुत होता है, उसी को भाषा में प्रस्तुत करता है । अतः यहाँ अनुकरण का अर्थ पुनः प्रस्तुतीकरण है ।


        मैथिलीशरण गुप्त की उक्ति इसी आशय का प्रतिपादन करती है, कि जो अपूर्ण, कला उसी की पूर्ति है । तुलसी ने भी लिखा है- चित्रकूट में दोनों भाई प्रेम से इतने पूर्ण हो गए कि उनकी दशा, मन, चित्त, बुद्धि और अहम् के परे चली गई। इस प्रेमानुभूति में ही कल्पनात्मक अनुभूति है इस कथन ें यह स्पष्ट आशय है कि कवि अपनी मानसिक छाया (mental image) का ही अनुकरण करता है ।


        सारांश यह है कि अनुकरण का अर्थ हूबहू नकल नहीं, बल्कि अनुभूति और कल्पना के द्वारा अपूर्ण को पूर्ण करना है । कवि मानव जीवन के सार्वभौम तत्त्व का अनुकरण करता है और उसे ही भाषा में अभिव्यक्त करता है ।


        काव्यसर्जन कवि के मानसिक बिम्ब का ही प्रतिफलन है। कवि का संसार इस संसार के समान इस अर्थ में होता है कि वह इस संसार की वस्तुओं (मानवीय क्रिया कलापों) के वैशिष्ट्य को सुरक्षित रखता है, और भिन्न इस अर्थ में है कि वह उसे संभव विस्तार दे देता है । कवि मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के अवरोधक कारणों को हटाकर उसे इतना संभव विस्तार देता है कि वह विश्व मानव (Universal man) हो जाता है, और जो साधारण यथार्थ था वह असाधारण यथार्थ (या आदर्श) बन जाता है ।


        कवि को दो स्वतंत्रताएँ प्राप्त हैं- (1) दृष्टि स्वातंत्र्य और (2) कर्म स्वातंत्र्य।


        यद्यपि सभी मनुष्यों में ये स्वतंत्रताएँ प्रकृति से प्राप्त हैं, किन्तु कवि में इनका अंश अधिक मात्रा में होता है । वह दृष्टि और कर्म दोनों की स्वतंत्रता के वरदान का उपयोग करता है । वह वही नहीं कहता जो है या जो हो चुका वरन्, वह वह कहता है जो हो सकता है । कवि की रचना अपूर्व होती है और उसका दर्शन व्यापक होता है ।   


    2. प्रकृति, वस्तु या चरित्र के आदर्शरूप का अनुकरण (Imitation of the ideal form of nature, object or character)


        कवि या कलाकार तीन प्रकार की वस्तुओं या चरित्र में से किसी एक का अनुसरण कर सकता है- (1) जैसा वह है या दिखाई देता है (प्रतीयमान) । (2) जैसा वह जाना या समझा जाता है (संभाव्य) और (3) जैसा उसे होना चाहिए (आदर्श)।

        इन तीनों वस्तुओं में पहला प्रतीयमान, दूसरा संभाव्य और तीसरा आदर्शात्मक है ।


            प्रथम दो कोटियों में तो वस्तु विद्यमान है किन्तु तीसरी जैसा होना चाहिए मे  तो कोई वस्तु है ही नहीं, अभी तो उसे होना है । कवि या कलाकार अपनी भावना या कल्पना के द्वारा उसे जैसा चाहे प्रस्तुत कर सकता है ।


         कहने की आवश्यकता नहीं कि संसार में जिसकी सत्ता ही नहीं है जो केवल आदर्श रूप है, उसके अनुकरण का तो प्रश्न ही नहीं उठता । जो होना चाहिए के चित्रण में निश्चित ही कवि की भावना या कल्पना का योगदान होगा । वह प्लेटो की भाँति नकलमात्र नहीं होगा। अतः यहाँ भी अनुकरण का अर्थ भावनामय या कल्पनामय अनुकरण है, कोरा नकल नहीं ।


    उपर्युक्त विश्लेषण से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं -


    1. काव्य या कोई भी कला प्रकृति का कोरा अनुकरण या नकल नहीं है; और यदि अनुकरण है भी तो वह मूल (Original) से अधिक रमणीय तथा आकर्षक हुआ करता है ।

    2. वह सदा अनुकरण ही हो, यह भी आवश्यक नहीं है। वह बहुधा अवास्तविक आदर्श का प्रतिरूपण (representation of unrealistic ideal) होता है अर्थात् उसमें कुछ ऐसे तत्व जुड़ जाते हैं जो मूल में नहीं होते। फलत: वह मूल पर आधारित होते हुए भी मूल से भिन्न होता है ।


    3. कविता और इतिहास (Poetry and History)


         इतिहास से काव्यकला भिन्न है, क्योंकि इतिहासकार वही वर्णन करता है जो घटित हुआ है । कवि वह भी वर्णन करता है, जो घटित हो सकता है । वे कहते हैं कि इतिहास विशेष (particular) की अभिव्यक्ति है और काव्य सार्वभौम (universal) का। कवि के अनुकरण का रूप सदैव नवीन होता है क्योंकि वह अनुकरण पुनः सर्जन (re-creation) या पुनः प्रस्तुतीकरण है ।

        अरस्तू के इतिहास और काव्य सम्बन्धी विवेचन से भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अनुकरण से अरस्तू का अभिप्राय पुनः सर्जन या भाव या कल्पनापरक अनुकरण से था और इसी कारण काव्य या कला के रूप में जो प्रस्तुति होती है, जिसे अरस्तू ने अनुकरण कहा है, वह रोचक और प्रेरक होती है।


    4. कार्यरत मनुष्य और जीवन का अनुकरण (imitation of man in action and life)


        ट्रेजेडी की परिभाषा में अरस्तू ने लिखा है कि ट्रेजेडी (दुःखान्त नाटक) मनुष्यों का नहीं वरन् कार्यरत मनुष्य (man in action) का अनुकरण करती है । यहाँ कार्य  से तात्पर्य मनुष्य के स्वभाव, विचार या अनुभूति से है । ट्रेजेडी में नाटककार पात्रों के स्वभाव, भाव, विचार और चरित्र को उद्घाटित करता है । अतः यहाँ भी अनुकरण का अर्थ नकल न होकर पुनः प्रस्तुतीकरण है ।


        इसी सन्दर्भ में अरस्तू ने यह भी लिखा है कि काव्य में जिस मनुष्य का चित्रण होता है, वह यथार्थ जीवन से अच्छा भी हो सकता है, उससे बुरा भी हो सकता है और वैसे का वैसा भी अर्थात् वास्तविक। काव्य या नाटक में यथार्थ जीवन से अच्छे या बुरे मनुष्य का ही चित्रण होता है, वास्तविक जीवन का नहीं । यथार्थ से अच्छा या बुरा मानव चित्रित करने के लिए कलाकार को कल्पना का सहारा लेना पड़ता है । अतः अनुकरण का अर्थ काल्पनिक पुनः सर्जन से है जिसमें कुछ चीजें बढ़ाई जा सकती हैं और कुछ चीजें छोड़ी जा सकती हैं 


        अरस्तू ने लिखा है-जिस प्रकार अच्छे चित्रकार वस्तु के मूल रूप को पुनः प्रस्तुत करते हुए उसका ऐसा चित्र उकेरते हैं, जो वास्तविक जीवन के सदृश होता होते हुए भी उससे अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर होता है, उसी प्रकार कवियों को चाहिए कि मनुष्यों के स्वभाव आदि को प्रस्तुत करते समय वे उनके मूल स्वभाव को तो बनाये रखें, किन्तु उसे उदात्त भी बना दें ।


    5. भय और दुःख का निराकरण (Alleviation of fear and sorrow) 


        अरस्तू ने काव्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में लिखा है -  जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष दर्शन हमें दुःख देता है, उनका अनुकरण के द्वारा प्रस्तुत या चित्रित रूप हमें आनन्द प्रदान करता है । डरावने जानवर को देखने में हमें भय और दुःख होता है किन्तु उसका अनुकरण द्वारा प्रस्तुत रूप हमें आनन्द प्रदान करता है ।


            इसका आशय यह है कि अनेक जीव-जंतु (शेर आदि) देखने में तो भयानक दिखते हैं परन्तु उन्हीं का यथार्थ चित्रण हममें आनंद उत्पन्न करता है और हम उन्हें देखकर कह उठते हैं कि अरे यह तो बिल्कुल वही है । यहाँ भय और दुःख का निराकरण हो जाता है । अतः यह अनुकरण निश्चित ही यथार्थ न होकर काल्पनिक होगा ।


        इस प्रकार अरस्तू के विविध कथनों की व्याख्या करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अनुकरणका अर्थ अरस्तू के अनुसार काल्पनिक अनुकरण या पुनः सृजन या पुनर्प्रस्तुतीकरण होगा।


    अनुकरण का अर्थ किसी विषयवस्तु का यथार्थ चित्रण से नहीं है । यह अनुकरण सुन्दर होगा, आनंद प्रदान करेगा, पाठकों को वास्तविकता के प्रति आश्वस्त करेगा ।


            अरस्तू का दृष्टिकोण सौन्दर्यवादी है । उन्होंने अनुकरण प्रधान कलाओं की  निन्दा नहीं प्रशंसा की हैं, उसके महत्त्व को स्वीकार किया है । उनका कथन है कि अनुकरण की प्रवृत्ति मनुष्य को बचपन से ही प्राप्त होती है । वह अनुकरण द्वारा ही बहुत कुछ सीखता है। 


        अरस्तू का यह कथन भी कि अनुभव के द्वारा यह प्रमाणित है कि बहुत सी वस्तुएँ देखने में दुःखदायी होती हैं किन्तु काव्य में उनका वास्तविक प्रस्तुतीकरण आनन्ददायी होता है । जैसे खूँखार जानवरों की प्रस्तुति । इस प्रकार अरस्तू ने अनुकरण का अर्थ किसी वस्तु (जीवन) का पुनः प्रस्तुतीकरण माना, दर्पण में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब का हूबहू वैसा ही नकल नहीं, जैसा कि प्लेटो ने कहा था ।


    परवर्ती विद्वानों के अनुसार अनुकरण का अर्थ



        प्लेटो के अनुसार अनुकरण का अर्थ हूबहू नकल था, तो अरस्तू के अनुसार पुनः प्रस्तुतीकरण । आगे चलकर लोंजाइनस, सिसरो, डायोनिसस, क्विन्टिलियन, होरेस, पोप आदि ने अनुकरण का अर्थ महाकवियों का अनुकरण किया। लोंजाइनस ने उदात्त तत्त्व की चर्चा में प्राचीन महान कवियों के अनुकरण को वाँछनीय माना । होरेस, पोप आदि ने प्राचीन ग्रीक कवियों के अनुकरण पर बल दिया।

        होरेस ने लिखा है कि वे यूनानी लेखकों के आदर्श को कभी भूलें दिन में उनका अध्ययन और रात्रि में चिन्तन करें ।


        पोप ने अनुकरण का समर्थन करते हुए लिखा था, आजकल के कवियों का कर्त्तव्य है कि वे होमर और वर्जिल को खूब पढ़ें और उन्हीं को अपना आदर्श मानें।


          प्रो.बूचर की मान्यता - प्रो. बूचर के अनुसार अनुकरण शब्द का अर्थ है मूल वस्तु का पुनः प्रस्तुतीकरण । बूचर अनुकरण को रचनात्मक प्रक्रिया (Creative action) मानता है ।

          प्रो.गिलबर्ट मरे – मरे ने अनुकरण की व्याख्या करते हुए बताया कि अनुकरणशब्द में करणया सृजनका भाव है । अतः अनुकरण का अर्थ पुनःसृजन है ।

          स्काट जेम्स- स्काट जेम्स ने अनुकरण का अर्थ कल्पनात्मक पुनर्निर्माणमाना है ।

          पॉटस के अनुसार- अनुकरण का अर्थ जीवन का पुनः सृजन है ।

          एटकिन्स के अनुसार- प्रायः पुनः सृजन का नाम अनुकरण है ।

          प्रो.बूचर, मरे आदि विद्वानों ने अरस्तू के द्वारा प्रतिपादित अनुकरण के अर्थ को ही स्पष्ट करने का प्रयास किया है ।


          डॉ. नगेन्द्र - डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है- यह सिद्ध है कि अनुकरण का अर्थ यथार्थ चित्रण मात्र नहीं है— वह पुनःसृजन का पर्याय है और उसमें भाव-तत्त्व और कल्पना-तत्त्व का यथेष्ट अन्तर्भाव है, उसमें सर्जना और सर्जना के आनंद की अस्वीकृति कदापि नहीं है। (अरस्तू का काव्यशास्त्र, पृ.11) 


              आज समीक्षा के क्षेत्र में अनुकरण का महत्त्व कम हो गया है और अनुकरण के स्थान पर कल्पना को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है । अब काव्य का मूल्यांकन पाठक पर पड़ने वाले प्रभाव की कसौटी पर होता है । फिर भी नाटक, कविता, उपन्यास आदि में आज भी वह यथार्थवाद के रूप में विद्यमान है । जो कवि, नाटककार, उपन्यासकार अपनी रचना में जीवन को ज्यों का त्यों उतारने के पक्ष में है, वे वस्तुतः यथार्थवादी ही हैं ।


    पूर्वोक्त सभी बातों को लेकर अनुकरणके अर्थ को संक्षेप में हम इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं :


          1. प्लेटो के अनुसार अनुकरण का अर्थ हूबहू नकल  है।

          2. अरस्तू की दृष्टि में अनुकरण का अर्थ था पुनः सृजन या पुनः प्रस्तुतीकरण ।

          3. सिसरो, होरेस आदि के अनुसार अनुकरण का अर्थ प्राचीन महान कवियों का अनुकरण

          4. अरस्तू के परवर्ती समीक्षक बूचर आदि के अनुसार अनुकरण का अर्थ पुनः सृजन या कल्पनात्मक सृजन

          5. डॉ. नगेन्द्र के अनुसार अनुकरण पुनः सर्जन का पर्याय है ।

          6. आज अनुकरण’, यथार्थवाद और अतियथार्थवाद के रूप में देखा जाता है ।


    अनुकरण के संबंध  में भारतीय मत


        आचार्य भरत  ने अनुकरण के स्थान पर अनुकीर्तनशब्द का प्रयोग किया है — नाट्यंभावानुकीर्तनम्। आचार्य भरत की यह व्याख्या अरस्तू के मत से मेल खाती है ।


           आचार्य अभिनवगुप्त का कथन है कि भरत का अनुकरणसे अभिप्राय – अनुव्यवसाय से था जिसमें कवि कल्पना के द्वारा अपने निजी पात्रों की सृष्टि करता है । यहाँ भी अनुकरण का अर्थ काल्पनिक पुनर्निर्माण है ।


           आचार्य धनंजय के अनुसार अवस्था विशेष की अनुकृति ही नाटक है- अवस्था अनुकृतिः नाट्यम् । अवस्था से तात्पर्य आन्तरिक और बाह्य सभी अवस्थाओं से है ।


    अनुकरण सिद्धान्त की कमियाँ- अरस्तू ने अनुकरण को नवीन अर्थ प्रदान तो किया, तथापि उसमें कुछ कमियाँ हैं-


          1. अनुकरण सिद्धान्त कल्पना तत्व को स्वीकार करते हुए भी विषयवस्तु को ही प्रमुखता देता है ।

          2. अनुकरण सिद्धान्त की सीमा बड़ी संकुचित है । उसमें कवि की आन्तरिक चेतना को महत्त्व नहीं दिया गया है ।

          3. अनुकरण सिद्धान्त गीतिकाव्य पर लागू नहीं हो सकता । गीतिकाव्य में कवि की निजी अनुभूतियों की प्रधानता होती है जो अनुकरण की परिधि में नहीं आ सकता ।

           4. मनोविश्लेषणवादी या आत्मवादी कला चिन्तकों के साथ अनुकरण सिद्धान्त मेल नहीं खाता । चेतन और अवचेतन की अभिव्यक्ति मानने वाले की दृष्टि में अनुकरण का कोई महत्त्व नहीं ।

          5. क्रोचे कविता को सहजानुभूति मानते हैं, अतः वहाँ अनुकरण का प्रश्न ही नहीं उठता।

           6. अस्तित्ववादी व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल देते हैं, अतः जीवन और प्रकृति के अनुकरण की बात वहाँ भी नहीं उठती । किन्तु बात यह है कि ये सब बातें अरस्तू के समय में नहीं उठीं थीं । कला और काव्य के सामाजिक पक्ष के साथ अनुकरण सिद्धान्त निश्चत ही जुड़ा है और उसका महत्त्व है।


    निष्कर्ष


        अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त भावनामय तथा कल्पनामय अनुकरण को मानकर चलता है, शुद्ध प्रतिकृति को नहीं । अनुकरण को नया अर्थ प्रदान कर अरस्तू ने कला का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित किया, कला का संबंध अमूर्त तर्क से नहीं, संवेदन और बिम्ब विधायिनी शक्ति से माना, सुंदर को शिव से अधिक व्यापक बताया, कला पर प्लेटो द्वारा लगाए गए आरोपों का उत्तर देते हुए कविता को दार्शनिकों तथा नीतिज्ञों के चंगुल से मुक्त किया तथा कवि और काव्य को श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया । 

     

     

    कोई टिप्पणी नहीं

    Blogger द्वारा संचालित.