अलंकार सम्प्रदाय |Alankar Sampraday | Alankar Siddhant | Bhartiya Kavya Shastra

 

अलंकार सम्प्रदाय |Alankar Sampraday | Alankar Siddhant | Bhartiya Kavya Shastra 

अलंकार सम्प्रदाय |Alankar Sampraday | Alankar Siddhant | Bhartiya Kavya Shastra


     अलंकार काव्य का वह तत्व है जो उसे अलंकृत करता है । अर्थात् अलंकार काव्य को सुंदर बनाता है ।

         सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में चार अलंकारों – उपमा, रूपक, दीपक और यमक का उल्लेख मिलता है ।  किन्तु अभी अलंकार-सिद्धान्त का जन्म नहीं हुआ था ।



    संस्कृत काव्यशास्त्र में कालक्रम की दृष्टि से रस सम्प्रदाय सबसे प्राचीन है।  अलंकार-सिद्धान्त का प्रवर्तक भामह (छठी शती ई.) को माना जाता है, जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ काव्यालंकार है । भामह ने 37 अलंकारों का निरूपण किया तथा अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व घोषित किया ।


    अलंकारवादी आचार्यों में भामह, दण्डी, उद्भट, रुद्रट, भोज, रुय्यक, जयदेव और अप्पय दीक्षित के नाम लिये जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त अलंकारों पर विचार उन आचार्यों ने भी किया है जो मूलतः अलंकारवादी आचार्य नहीं थे। यहां हम संक्षेप में अलंकारवादी आचार्यों के मत दे रहे हैं :


     

    (1) भामह 


         'भामह' अलंकार सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनके ग्रन्थ का नाम है 'काव्यालंकार' जिसमें छः परिच्छेद हैं, चार सौ श्लोक हैं और सैंतीस अलंकार हैं। यह अलंकार शास्त्र का अति व्यवस्थित और विवेचनपूर्ण ग्रन्थ है।

     

    भामह के अनुसार अलंकार काव्य का प्राणतत्व है वे कहते हैं :

    'न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिता मुखम्।'


         अर्थात् सुन्दर होते हुए भी स्त्री का मुख आभूषण से हीन होने पर सुशोभित नहीं होता। उसी प्रकार अलंकार रहित काव्य सुन्दर होने पर भी मूल्यहीन है। वे अलंकार रहित कथन को काव्य न कहकर 'वार्ता' की संज्ञा देते हैं। भामह ने अलंकार और अलंकार्य में कोई भेद नहीं किया है ।


         भामह ने अलंकारवादी आचार्य होते हुए भी रस की उपेक्षा नहीं की है, वे रसों को अलंकारों में ही समाविष्ट करते हैं।

    भामह के मत का सार निम्नवत् है :

    (i) अलंकार काव्य का प्राण तत्व है।

    (ii) अलंकृत कथन ही काव्य है।

    (iii) भामह अलंकार और अलंकार्य में भेद नहीं मानते।

    (iv) अलंकार का मूल वक्रोक्ति है।

    (v) रस भी एक प्रकार का अलंकार ही है।

     

    (2) दण्डी


    दण्डी' के ग्रन्थ का नाम 'काव्यादर्श' है जिसमें छः सौ साठ श्लोक हैं। इन्होंने अलंकारों के साथ-साथ रीति और गुणों की भी चर्चा की है।

         भामह के समान दण्डी भी अलंकार को काव्य की आत्मा मानते हैं। उनके अनुसार :

    'काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।'

         अर्थात् काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार हैं। स्पष्ट है कि अलंकार को दण्डी काव्य का अनिवार्य तत्व मानते हैं। दण्डी अलंकारों के मूल में अतिशयोक्ति को मानते हैं। भामह जिसे वक्रोक्ति कहते हैं दण्डी उसी को अतिशयोक्ति कहते हैं।

    उनके मत का सार निम्नवत् है:

    1. अलंकार काव्य का शोभाकारक धर्म है।

    2. अलंकार और अलंकार्य के भेद को दण्डी नहीं मानते।

    3. अलंकार का मूल अतिशयोक्ति है।

    4. वे वक्रोक्ति और अतिशयोक्ति में भेद नहीं मानते।

     5. काव्य के अन्य अवयवों को भी वे अलंकार में ही समाविष्ट करते हैं।

     

    (3) वामन


        आचार्य वामन यद्यपि रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे तथापि वे अलंकार को भी महत्व प्रदान करते थे इसीलिए उनकी गणना अलंकारवादी आचार्यों में की जाती है, किन्तु वे अलंकार को काव्य का शोभाकारक धर्म न मानकर शोभा में वृद्धि करने वाला तत्व मानते हैं :

    काव्य शोभायाः कर्तारो धर्माःगुणा तदतिशय हेतवसत्वलंकारा:

         अर्थात् काव्य का शोभाकारक धर्म गुण (रीति) है और अलंकार उसे अतिशयता प्रदान करता है।


         वामन के ग्रन्थ का नाम है 'काव्यालंकार सूत्रवृत्ति', जिसमें गुण को काव्य की आत्मा मानते हुए भी अलंकार को एक प्रमुख तत्व माना गया है।

     

    (4) कुन्तक का मत 


          आचार्य कुन्तक यद्यपि वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं तथापि अलंकार पर भी उन्होंने विचार किया है। कुन्तक काव्य में अलंकार के पक्षधर हैं, किन्तु वे अलंकार को काव्य का शोभाकारक धर्म न मानकर उसे उपादान कारण ही स्वीकार करते हैं।


         उनके अनुसार काव्य न तो अलंकार हैं और न अलंकार्य। बल्कि दोनों का समन्वित रूप ही काव्य है ।

     

    (5) आचार्य उद्भट


            अलंकारवादियों में उद्भट का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने 'काव्यालंकार सार-संग्रह' नामक ग्रन्थ लिखा जो वस्तुतः आचार्य भामह के काव्यालंकार की टीका है।


         वे गुण और अलंकार को काव्य में चारुता (सुन्दरता) का द्योतक मानते हैं, किन्तु गुण और अलंकार की सत्ता को अलग-अलग स्वीकार करते हैं।

     

    (6) रुद्रट


            रुद्रट के ग्रन्थ का नाम 'काव्यालंकार' है जिसमें कुल सोलह अध्याय हैं इनमें से ग्यारह अध्यायों में अलंकारों का विशद विवेचन है। इनका अलंकार विवेचन अधिक स्पष्ट और वैज्ञानिक है। इन्होंने अर्थालंकारों को चार आधारों पर वर्गीकृत किया। ये आधार हैं :

     

    (i) वास्तव - (तेइस अलंकार)

    (ii) औपम्य -  (इक्कीस अलंकार)

    (iii) अतिशय- (बारह अलंकार)

    (iv) श्लेष्य - (दस अलंकार)

     

    (7) आचार्य रुय्यक


          रुद्रट के पश्चात काव्यशास्त्र में रस और ध्वनि की प्रतिष्ठा हुई, किन्तु इन आचार्यों ने अलंकार की पूर्ण उपेक्षा नहीं की। बारहवीं शताब्दी में आचार्य रुय्यक ने अलंकार सर्वस्व' नामक ग्रन्थ लिखा, जिसमें अलंकारों का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ में इक्यासी अलंकार विवेचित किए गए जिनमें 75 अर्थालंकार हैं और 6 शब्दालंकार। रुय्यक ने यद्यपि अलंकार सम्प्रदाय का पर्याप्त विकास किया पर मूलतः वे ध्वनिवादी आचार्य थे। उनके ग्रन्थ पर ध्वनि सिद्धान्त का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।

     

    (8) आचार्य जयदेव


             जयदेव के अलंकार ग्रन्थ का नाम ‘चन्द्रालोक' है। इस ग्रन्थ में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट की आलोचना करते हुए कहा:

    अंगी करोति यः काव्यम् शब्दार्थावनलंकृती,

    असौ न मन्यते कस्माद् अनुष्णमनलंकृती।”


         अर्थात् “जो आचार्य अलंकार रहित रचना को काव्य मानते हैं, वे विद्वान अग्नि को भी उष्णता रहित क्यों नहीं मान लेते ?” उनके कथन का मन्तव्य यह है कि जैसे उष्णता अग्नि का स्वाभाविक धर्म है उसी प्रकार अलंकार भी काव्य का स्वाभाविक धर्म है। चन्द्रालोक में 104 अलंकारों का वर्णन है। जिनमें 100 अर्थालंकार हैं और 4 शब्दालंकार।


         संस्कृत के इन अलंकारवादी आचार्यों के अतिरिक्त मम्मट, आनन्दवर्द्धन, अभिनव गुप्त, आचार्य विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ के नाम भी उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने काव्य में अलंकारों के महत्व को तो एक स्वर से स्वीकार किया किन्तु वे अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं मानते।

     

    हिंदी के अलंकारवादी आचार्य


         हिन्दी में रीतिकालीन आचार्यों ने अलंकारों का पर्याप्त विवेचन किया। इनमें केशवदास का नाम उल्लेखनीय है। वे अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व मानते हुए कहते हैं :

    “जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त ।

    भूषण बिनु न विराजई कविता वनिता मित्त।"

     

         अलंकारों के बिना कविता और आभूषणों के बिना स्त्री शोभा नहीं पाती, भले ही वह उत्तम जाति वाली, सुलक्षणा, सुन्दर वर्ण (रंग, शब्द) वाली, सरस (रसपूर्ण, रसीली) और सुन्दर वृत्त (छन्द, चरित्र) वाली क्यों न हो।


         उनका अभिप्राय यह है कि अन्य गुणों से सम्पन्न होने पर भी कविता के लिए अलंकार अनिवार्य हैं जिनके अभाव में वह शोभा नहीं पा सकती।


         रीतिकाल के अन्य अलंकारवादी आचार्य हैं जसवन्त सिंह (भाषा भूषण) आचार्य गोप (रामचन्द भूषण और रामचन्द्राभरण) आदि। रीतिकाल में अनेक अलंकार ग्रन्थ लिखे गए, किन्तु वे संस्कृत ग्रन्थों को आधार बनाकर लिखे गए हैं उनमें कोई मौलिकता नहीं है।


         आधुनिक युग के अलंकारवादी आचार्यों में कन्हैयालाल पोद्दार (अलंकार मंजरी), लाला भगवानदीन ( अलंकार मंजूषा) रमाशंकर शुक्ल 'रसाल' (अलंकार पीयूष) तथा डॉ. सुधीन्द्र (काव्यश्री) के नाम उल्लेखनीय हैं।


         आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी अलंकार पर विचार किया है। उनके अनुसार — “भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली उक्ति ही अलंकार है।"


         वे अलंकार और अलंकार्य के भेद को भी स्वीकार करते हैं।

     

    उपर्युक्त विवेचन के आधार पर अलंकार के विषय में निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं :

    (1) अलंकार काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाला तत्व है।

    (2) अलंकार काव्य का अनिवार्य तत्व न होकर सहायक तत्व है।

    (3) अलंकार और अलंकार्य में भेद है। अलंकार से अलंकार्य को अलंकृत किया जाता है।

     (4) अलंकार के मूल में वक्रोक्ति निहित रहती है।

    (5) अलंकार भाव का उत्कर्ष करने और वस्तु के रूप, गुण और क्रिया को प्रत्यक्ष करने में प्रायः सहायक होता है।

    (6) अलंकार चाहे काव्य की आत्मा भले ही न हो पर वह उपेक्षणीय तत्व नहीं है।

     

    निष्कर्ष

          अलंकार काव्य की शोभा को बढ़ाने वाले तत्व के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते रहे हैं। कुछ आचार्यों ने तो अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व मानते हुए उसे काव्य की आत्मा के पद पर प्रतिष्ठित किया है।


          यहाँ हम इस विवाद पर विचार नहीं करेंगे कि अलंकार काव्य की आत्मा है या नहीं, किन्तु इतना अवश्य कहेंगे कि अलंकार की उपयोगिता को प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है।


           प्रायः सभी कवियों ने भी अपने काव्य में अलंकारों को स्थान दिया है। ऐसा तो कोई भी कवि खोजने पर भी न मिलेगा जिसका काव्य अलंकारविहीन हो।

         संक्षेप में काव्य में अलंकारों की भूमिका निम्न शीर्षकों में स्पष्ट की जा सकती है :

     

    (1) काव्य को आकर्षक बनाने के लिए— जैसे कोई सर्वांग सुन्दरी आभूषणों को धारण कर लेने पर अपने सौन्दर्य में चार चांद लगा लेती है उसी प्रकार अलंकार काव्य को और भी आकर्षक और सुन्दर बना देता है। अलंकार से भले ही काव्य के बाह्य सौन्दर्य में ही वृद्धि होती हो, किन्तु इतना तो निर्विवाद है कि अलंकार विहीन कविता काव्य रसिकों को आकृष्ट नहीं कर पाती।

     

    (2) काव्य को प्रभावी बनाने के लिए - अलंकार के प्रयोग से काव्य की उक्ति अधिक प्रभावशाली बन जाती है, पाठक और श्रोता अधिक तीव्रता के साथ उस भाव को ग्रहण करते हैं। जिसे कवि अलंकारों के माध्यम से, अप्रस्तुत विधान के माध्यम से पाठक तक पहुंचाना चाहता है।


         आज बहुत गर्मी है यह कथन उतना प्रभावशाली नहीं है जितना यह कथन कि आज तो पृथ्वी तवे के समान जल रही है, सूरज आग बरसा रहा है :

    "बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा"

    (हरिऔध )


    (3) भाव के स्पष्टीकरण के लिए— अलंकार का एक उपयोग भाव को अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराने के लिए भी है। जब कोई कवि अपनी अनुभूति को सामान्य शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाता तब अलंकार योजना का सहारा लेता है। स्पष्ट है कि अलंकार वह लाठी है जो लंगड़े का सहारा बनती है और अन्य व्यक्तियों की शक्ति (हथियार) बनती है।

         चिन्ता क्या होती है। इसे बता पाना बड़ा कठिन है, क्योंकि चिन्ता एक अमूर्त भाव है, परन्तु जब प्रसाद जी उसे सर्पिणी कहते हैं तो उसकी भयावहता हमारे सामने स्पष्ट हो जाती है :

    “ओ चिन्ता की पहली रेखा अरी विश्व वन की ब्याली।"

    (प्रसाद)

     

         कविवर सुमित्रानन्दन पंत के अनुसार “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं।"

         अन्त में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अलंकार काव्य का साधन है, साध्य नहीं। कवि का मुख्य उद्देश्य तो वर्ण्य विषय को प्रस्तुत करना है न कि अलंकार योजना करना।

         वह अपने विषय को रमणीय व भावशाली एवं आकर्षक बनाने के लिए अलंकारों का सहारा ले सकता है, किन्तु जब एक-एक पंक्ति में दसियों अलंकार लाद दिए जाएंगे तो काव्य दब जाएगा और पाठक अलंकारों के चमत्कार में उलझ जाएगा; केशव जैसे कवियों की अलंकार योजना कुछ इसी प्रकार की है।

         आभूषण एक सीमा तक ही सौन्दर्य बढ़ाते हैं, किन्तु यदि कविता सुन्दरी को आभूषणों के बोझ से लादकर बोझिल बना दिया जाएगा. तो उसका आकर्षण समाप्त हो जाएगा।

         फिर भी अलंकारों का काव्य में महत्व बराबर बना रहेगा। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के अनुसार - "मैं अलंकारों के महत्व को भूल नहीं सकता, किसी प्रकार भी उनका अनादर नहीं कर सकता, क्योंकि अलंकारों ने काव्य कौशल के बहुत से ऐसे भेद खोले हैं जो अन्यथा अवशिष्ट रह जाते ।"

     

    डॉ.नगेन्द्र ने अतिशयोक्ति, वक्रता, चमत्कार की प्रवृत्ति को अलंकारों के मनोविज्ञान से जोड़ा है। अलंकार की महत्ता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि दुनिया के किसी भी कवि का काव्य अलंकार विहीन नहीं है।

         कुछ भी हो कवि को इस ओर अवश्य सजग रहना चाहिए कि अलंकार भावाभिव्यक्ति में साधक तो बनें पर बाधक न बनें।

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