प्लेटो का प्रत्ययवाद या प्लेटो का प्रत्यय सिद्धान्त | plato ka pratyayvad ya plato ka pratyay siddhant | plato ka pratyay siddhant | plato ka pratyayvad

 

प्लेटो का प्रत्ययवाद या प्लेटो का प्रत्यय सिद्धान्त

Plato ka Pratyayvad ya Plato ka Pratyay Siddhant 

Plato ka Pratyay Siddhant | Plato ka Pratyayvad


     पश्चिम में विधिवत् रूप से एक शास्त्र के रूप में साहित्य की आलोचना की शुरुवात सबसे पहले प्लेटो (427-347 ई.पू.) के माध्यम से हुई । उनका जन्म  ऐसे समय में हुआ था जिसे एथेन्स (यूनान) का पतनकाल कहा जाता है।

     युद्ध में पराजित एथेन्स अनेक कठिनाइयों से गुज़रते हुए शक्तिहीन हो चुका था। चारों ओर आध्यात्मिक मूल्यों का विनाश और सर्वत्र अवसरवादिता, विश्वासघात का माहौल था। ज्यादातर लोगों की संख्या ऐसी थी जो दास थे और जिनकी पीड़ाएँ अकथनीय थीं।


     इन श्रमजीवी दासों के बल पर ही ऐथेन्स की सभ्यता और संस्कृति का निर्माण हुआ था। किंतु ये लोग नागरिक जीवन में अधिकार पाने से वंचित थे। प्रजातंत्र के नाम पर राज्यसत्ता व्यापारियों और कुछेक कुलीनों के कब्ज़े में थी। इसलिए अधिकांश विद्वानों का यह मत है कि प्लेटो का आदर्शवाद समकालीन सामाजिक पतन की गहरी प्रतिक्रिया का परिणाम है।


     प्लेटो की मूल दृष्टि आत्मवादी (Subjective) या प्रत्ययवादी’ (Idealist) थी अर्थात् उनके मत से यह विश्व और इसके सभी पदार्थ विश्व की विराट चेतना में प्रत्यय (विचार या idea) के रूप में स्थित हैं। बाहरी संसार में हम जो कुछ देखते हैं वह उस अमूर्त प्रत्यय (विचार या idea) का मूर्त अनुकरण मात्र है।


     कविता बाह्य संसार से सामग्री ग्रहण करती है और इस सामग्री को ही संशोधित-सपांदित कर संयोजित करती है। अतः वह अनुकरण का अनुकरण होने के कारण सामान्यतः ग्रहणीय नहीं है। प्लेटो के मत से कविता में वैज्ञानिकता, तर्कसिद्धता और गहरी मानवीय सामाजिकता का अभाव होता है।

 

     प्लेटो के संपूर्ण चिंतन का आधार है - नैतिकता और आदर्श राज्य का निर्माण। उनके कला संबंधी सभी विचार आदर्श नागरिक के निर्माण की चिंता के संदर्भ को ही व्यक्त करते हैं।


      ललित कलाओं का प्रसंग आने पर कभी-कभार प्लेटो व्यक्तित्व निर्माण के लिए संगीत की आवश्यकता स्वीकार करते हैं। किंतु इस तरह के विचार उनके चिंतन का केंद्रीय मुद्दा नहीं है।


      कला के संदर्भ में माइमेसिस’ (Mimesis) अर्थात् अनुकरण शब्द का प्रयोग उन्होंने परंपरा से प्राप्त मानकर इस संबंध में विचार किया कि अनुकरण का विषय क्या है और कला के लिए अनुकरणीय क्या है।


      प्लेटो ने अनुकरणशब्द का प्रयोग दो संदर्भों में किया :

(1) विचार जगत और गोचर जगत के बीच संबंध की व्याख्या के लिए; और

(2) वास्तविक जगत और कला जगत के बीच संबंध निरूपण के लिए।


     विद्वान मानते हैं कि पहले का संबंध तत्व-मीमांसा से है एवं दूसरे का संबंध नैतिकता से संबंधित प्रश्नों से। कला का प्रश्न नैतिक परिधि में आता है। कला चिंतन के इतिहास में प्लेटो को नैतिकतावादी मानने के मूल में यही धारणा सक्रिय रही है।

 

प्रत्ययवाद या प्रत्यय सिद्धान्त से तात्पर्य

 

     प्लेटो में काव्य और दर्शन के सापेक्ष महत्व को लेकर प्रायः अंतर्द्वद्ध दिखाई देता है। इसका कारण है वे स्वभाव और संस्कार से कवि हैं तथा शिक्षा और परिस्थिति से दार्शनिक।


     कभी वे काव्य और दर्शन के पुराने विवाद की याद दिलाते हैं तो कभी काव्य को ईश्वरीय प्रेरणा से उत्पन्न मानकर उसकी प्रशंसा करते हैं। प्रायः प्लेटो का स्मरण काव्य के विरुद्ध अनेक आरोप लगाने वाले दार्शनिक आचार्य की तरह किया जाता है।


     उनके मत से काव्य की अग्राह्यता के दो आधार हैं - दर्शन और प्रयोजन। मूलतः प्लेटो प्रत्ययवादी (Idealist) दार्शनिक हैं। प्रत्ययवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात् विचार (idea) ही परम सत्य है. वह नित्य है, एक है, अखंड है और ईश्वर ही उसका सर्जक (निर्माता) है। यह दृश्यमान वस्तु-जगत प्रत्यय (परम सत्य या ईश्वर) का अनुकरण है क्योंकि कलाकार किसी वस्तु को ही अपनी कला के द्वारा निर्मित अंकित या चित्रित करता है।


     इस क्रम में कला तीसरे स्थान पर है । पहला स्थान प्रत्यय (idea) का (अर्थात ईश्वर का), दूसरा स्थान उसके आभास या प्रतिबिंब या वस्तु-जगत का और तीसरा स्थान वस्तु-जगत के प्रतिबिंब कला-जगत का।


     इसलिए परम सत्य (idea) से कला का तिहरा अलगाव है और अनुकरण का अनुकरण होने के कारण वह मिथ्या या झूठ है। प्लेटो के शब्दों में कविता या कला सत्य से तिगुना दूर (Thrice removed from reality) होती है।


     अपने इस सैद्धान्तिक कथन को प्लेटो अपने उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं। उनका कहना है कि संसार में प्रत्येक वस्तु का एक नित्य (permanent, everlasting) रूप होता है। यह प्रत्यय या विचार (idea) में ही निहित रहता है और यह रूप ईश्वर निर्मित है। विचार (प्रत्यय या idea) में मौजूद उसी रूप के आधार पर किसी वस्तु का निर्माण होता है।


     इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए प्लेटो ने पलंग का उदाहरण दिया है। यथार्थ पलंग वह है जिसका रूप हमारे प्रत्यय या विचार (idea) में है और इस रूप का निर्माण ईश्वर ने किया है। इस विचार में विद्यमान रूप के आधार पर बढ़ई लकड़ी के पलंग का निर्माण करता है और उसके द्वारा निर्मित पलंग का चित्र कवि या कलाकार निर्मित करता है।


      इस प्रकार तीन पलंग हुए (1) एक तो वह जिसका निर्माण ईश्वर करता है (प्रत्यय या विचार रूप में पलंग), (2) दूसरा वह जिसका निर्माण लकड़ी से बढ़ई करता है, और (3) तीसरा वह जिसका निर्माण कलाकार या चित्रकार करता है। परंतु इन तीनों के पलंग में अंतर है।


     मूल बात यह कि वस्तु प्रत्यय (idea) में ही रूपायित (रूप दिया गया)  होती है, फिर उसका अनुकरण कर निर्माता उसे ठोस आकार देता है या मूर्त रूप देता है।  


     यह आकार यथार्थ की नकल होता है। इसलिए उसकी स्थिति यथार्थ के दूसरे स्थान पर है।


      कलाकार - कवि, चित्रकार, मूर्तिकार किसी माध्यम (शब्द, रंग या पत्थर) के द्वारा उस ठोस वस्तु की नकल कर उसे नया रूप देता है। इसलिए वह यथार्थ से तीसरे स्थान पर है।


      इसीलिए प्लेटो कहते हैं कि कला नकल की नकल है, अनुकरण का अनुकरण है, छाया की छाया है, प्रतिबिंब का प्रतिबिंब है अर्थात् नकल या मिथ्या है। प्लेटो अपना यह तर्क सभी कलाओं पर लागू करते हैं।


प्लेटो के अनुसार यह समस्त दृश्यमान संसार, जो इंद्रियों द्वारा पहचाना जाता है, वह वास्तविक न होकर एक भ्रम है, वह अन्य वास्तविक सत्ताओं की, जो कि ईश्वर के मन ही में विद्यमान है, अनुकरण अथवा छायामात्र है । अतः प्लेटो समस्त दृश्यमान संसार को भ्रम मानते हैं । उनकी दृष्टि में विचार रूप जगत ही सत्या है, यह संसार असत्य है । 


     भ्रम से ग्रस्त हम सबकी तुलना प्लेटो ने अपने प्रसिद्ध गुफा वाले रूपक में की है । रूपक इस प्रकार है – “एक मनुष्य प्रारम्भ से अपना मुख गुफा की ओर किए बैठा है । उसके पीठ के पीछे समस्त जगत का कार्य-व्यापार चल रहा है किन्तु वह उससे सर्वथा अनभिज्ञ है । वह तो केवल उसकी छायामात्र को अपने सामने पड़ते देख सकता है । भ्रमवश वह उस छाया-जगत को ही वास्तविक जगत समझ बैठता है और उसे कभी भी यह संदेह नहीं होता कि उसके सामने होने वाली छाया-जगत स्वयं वास्तविक न होकर भ्रम है ।


     प्लेटो कहते हैं कि ठीक इसी प्रकार हम मौलिक सत्ताओं के लोक से अनभिज्ञ हो उनकी अनुकृति मात्र का दर्शन कर उन्हें ही वास्तविक समझ बैठते हैं ।

 

      प्लेटो का विचार है कि होमर और हैसिओड (आठवीं शताब्दी ई. पूर्व) जैसे कवियों के काव्य अथवा सोफोक्लीज़ अरिस्तोफोनीज़ जैसे नाटककारों के नाटक भी अपवाद नहीं हैं।


     इन कृतियों को पढ़ने, देखने या सुनने से अच्छे नागरिकों का निर्माण आदर्श राज्य के लिए संभव नहीं है। नैतिकतावादी आग्रहों से प्रेरित होकर प्लेटो काव्य और कलाओं की निंदा करते हैं। उनके कुछ तर्क इस प्रकार हैं-

 

1. होमर के महाकाव्यों इलियडऔर ओडसीमें देवताओं का चरित्र असत्य भी है और अनुचित भी। उनमें देवत्व कहाँ है और देवत्व नहीं है तो वे मनुष्यों के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकते।

 

2. होमर और हैसिओड के काव्य में ऐसे स्थल प्रायः आते हैं जो पाठक को वीर और साहसी के बदले दुर्बल और कायर बनाते हैं। काव्य तो ऐसा होना चाहिए जो नवयुवकों में शौर्य की भावना भरे, उनके चरित्र का निर्माण करे और मृत्यु की लालसा के लिए उन्हें तैयार करे। प्लेटो का प्रसिद्ध कथन है दासता मृत्यु से भी बुरी चीज़ है।

 

3. प्रायः कवि भोग और विलास की कामना से भर कर आवेशपूर्ण, कामुकतापूर्ण भावों की सृष्टि करते हैं। इनसे शुद्धता और संयम में बाधा पड़ती है तथा चरित्रहीनता, भोग-लिप्सा और अराजकता फैलती है।

 

4. होमर के काव्य में ऐसी कहानियाँ भरी पड़ी हैं जिनमें दुष्ट जन सुख भोगते हैं और सज्जन दुख से व्याकुल रहते हैं। जहाँ सदाचार के लिए दंड और दुराचार के लिए सुख-वैभव और पुरस्कार मिलेगा वहाँ नैतिकता कैसे टिक सकेगी। कोमल बुद्धि वाले बालकों पर इन कहानियों का प्रभाव अनिष्टकारी होता है।

 

5. नाटककार प्रायः हल्के, ओछे, दुच्चे, हंसोड़, मसखरे, कामुक भावों का चित्रण पसंद करते हैं और प्रेक्षकों (दर्शकों) का एक वर्ग रंगशाला (थियेटर) में ऐसे अभिनयों की दाद भी देता है। होता यह है कि नाटककार उदात्त भावों (sublime feelings) से सर्वथा दूर रहते हैं। इससे समाज में ओछे भावों का वर्चस्व बढ़ जाता है।

 

6. काव्य या नाटक की अंतःप्रेरणा भावोच्छलन या भावों के तीव्र आवेग से उत्पन्न होती है, तर्क से नहीं और तर्क न होने के कारण भावावेश हृदय से चालित होता है बुद्धि से नहीं। बुद्धि और हृदय में संतुलन का अभाव आ जाने से कला उदात्त  की सृष्टि नहीं कर पाती। फिर भावमूलक होने से कला भाव को ही उद्दीप्त कर पाती है, तर्क को नहीं। तब होता यही है- काव्य मनोवेगों का पोषण और सिंचन करता है (Poetry feeds and waters the emotions) इसी का दुष्परिणाम यह होता है कि काव्य सत्य और शिव से दूर हो जाता है।

 

7. काव्य में प्रायः अन्योक्ति (Allegory) की रचना होती है। बालकों में इतनी बुद्धि नहीं होती कि वे अन्योक्ति तथा यथार्थ में भेद कर सकें। इसलिए बच्चों के सामने शुद्ध और नैतिक विचारों की ही कहानियों आनी चाहिए, असत्य और अनैतिक कल्पनाओं से प्रेरित नहीं।

(अन्योक्ति = एक अलंकार जिसमें एक से कही हुई बात किसी दूसरे पर घटित हो।)


     इस प्रकार प्लेटो का काव्य-नाटक विषयक विरोध साहित्येतर और नैतिक प्रतिमानों (मानदंडों) से प्रेरित है। उनके विचार से काव्य-सृजन एक प्रकार का ईश्वरीय उन्माद है, कवि उन्मत्त व्यक्ति है और काव्य-देवी (Muse) द्वारा अंतःप्रेरित होकर रचना करता है।


     प्लेटो बार-बार इस बात की ओर संकेत करते हैं कि साहित्य में मनुष्य के नैतिक पक्ष को सम्पन्न, समृद्ध और संतुष्ट करने की शक्ति होनी चाहिए। इस दृष्टि से वे नैतिकतावादी ही नहीं उपयोगितावादी भी हैं। उनकी दृष्टि में सुंदर वही है जो सत्य और शिव से सम्पन्न है।


     प्लेटो ने काव्य-प्रकृति और काव्य-सृजन की प्रक्रिया के साथ काव्य-प्रभाव पर भी गहराई से विचार किया है। रिपब्लिकके दसवें अध्याय में एक ओर तो वे कविता को सत्य का निम्नतर स्तर का चित्र या वर्णन मानते हैं, वहीं दूसरी ओर वे कविता को आत्मा के अधम भाग से सम्बद्ध कर देते हैं।


     उनके विचार से मानव आत्मा की प्रकृति दोहरी होती है जिसके प्रथम उत्तम भाग में बुद्धि और विवेक तथा दूसरे अधम भाग में शोक, क्रोध आदि मनोविकार की प्रधानता होती है। इसलिए काव्य का प्रभाव आत्मा के निम्न स्तर से संबंधित होता है।


     प्लेटो के शब्दों में - अनुकरणधर्मी कवि का उद्देश्य लोकप्रियता प्राप्त करना होता है। किंतु लोकप्रिय होने के लिए वह आत्मा के बौद्धिक पक्ष को संचालित और प्रभावित करके अपने पाठकों को प्रसन्न नहीं करता बल्कि वह सहज उत्तेजनशील संवेगों को संचालित करने में रुचि लेता है। इस प्रकार कवि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में दुष्ट प्रकृति का बीजारोपण करता है।


     दार्शनिक प्लेटो को कविता के विरुद्ध केवल यही शिकायत नहीं थी कि वह आत्मा के असाधु अंश (दुष्ट अंश) का पोषण करती है बल्कि कविता को लेकर उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि कविता हमारी वासनाओं को उत्तेजित करती है, उन्हें भड़काती और है, मनुष्य को अनियंत्रित बनाती है और आचरण-भ्रष्ट प्राणी का रूप देती है। जबकि अच्छी कविता का काम हमारी वासनाओं को दूर कर मन को निर्मल करना और संयमित करना होना चाहिए।


     चूँकि काव्य एक ऐसी शक्ति से सम्पन्न होता है जो भली प्रकृति के व्यक्ति के लिए घातक होती है, अतः प्लेटो कविता को आग्राह्य मानते हैं।


     चाहे त्रासदी हो या कामदी, प्लेटो का आदर्श अच्छे मनुष्य का निर्माण करना है। एक ऐसे मनुष्य का निर्माण जो सुख-दुःखमूलक सभी प्रकार के संवेगों के दमन पर निर्भर है। चूँकि कविता इस दमन में बाधक है, इसलिए प्लेटो कहते हैं - यह अनुकरण इन मनोवेगों को फैलाता, सींचता और पुष्ट करता है, जबकि हमको उन्हें सुखा देना चाहिए। यह उनको हमारा शासक बनाकर स्थापित करता है, जबकि उनको तो शासित होना चाहिए।


     प्लेटो के चिंतन में कवि और दार्शनिक का न केवल द्वंद्व है बल्कि उनके व्यक्तित्व के दोनों पक्षों में आश्चर्यजनक द्वंद्वात्मक एकता के दर्शन होते हैं। वस्तुतः कविता दर्शन को चुनौती देती है और दार्शनिक प्लेटो दर्शन से तुलना करते हुए ही कविता की आलोचना करते हैं। सच बात यह है कि दर्शन की ओर से कविता को चुनौती देकर प्लेटो ने उसके ऊपर एक गहन दायित्व सौंपने का कार्य किया है।


निष्कर्ष


         आज भी विद्वान प्लेटो द्वारा कविता पर लगाए गए आरोपों से जूझ रहे हैं और उनका सही समाधान उन्हें नहीं मिल पा रहा है। समय-समय पर प्लेटो के संवादों में परवर्ती काव्यशास्त्र में विकसित अनेक सिद्धांतों के बीज भी खोजने के प्रयत्न किए गए हैं। इस तरह के प्रयत्न करने वाले विद्वानों ने करुणा और त्रास की दोहरी मिश्रित स्थिति या विरेचन सिद्धांत, विरुद्धों के सामंजस्य का सिद्धांत आदि के बीज संकेत प्लेटो में पाए हैं जबकि सच बात यह है कि प्लेटो के चिंतन का महत्व काव्य सिद्धांतों की सूची बनाने में नहीं है बल्कि इस बात में है कि प्लेटो कविता को लेकर बुनियादी प्रश्न उपस्थित करते हैं।

     प्लेटो जैसे चिंतक इसलिए मूल्यवान हैं कि वह कविता पर सजग तार्किकता के साथ विचार करते हैं। प्लेटो के चिंतन का परवर्ती काव्य चिंतन पर अनेक जगह प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव दिखाई देता है।

      अनेक आक्षेपों और वाद-विवादों के केंद्र में रहते हुए भी प्लेटो का नाम पश्चिमी आलोचना जगत में आज भी उल्लेखनीय है। इसका प्रधान कारण यह है कि अरस्तू के काव्य सिद्धांत प्लेटो द्वारा कविता पर किए गए आक्षेपों का समाधान या उत्तर देने की मनःस्थिति से उपजे हैं। प्लेटो के बिना अरस्तू के चिंतन की कल्पना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

     प्लेटो ने कवियों का गौरव यह कहकर छीन लिया है कि कवि नकलची होता है। कवि के इस छिने हुए गौरव को प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने पश्चिमी काव्यशास्त्र में पुनः स्थापित किया है।

     संक्षेप में पश्चिम के कविता संबंधी चिंतन के वाद-विवाद के मूल में प्लेटो कहीं न कहीं अवश्य रहे हैं।

 

प्लेटो की देन : 

 

प्लेटो के कुछ महत्वपूर्ण विचार इस प्रकार हैं-

 

(1) काव्य एवं कला के स्वरूप, प्रयोजन तथा प्रभाव से संबद्ध अनेक विचारों के प्राचीनतम उद्भावक प्लेटो हैं।

 

(2) प्लेटो की दृष्टि में कला और साहित्य का प्रयोजन एवं मूल्य उसकी सामाजिक उपयोगिता है।

 

(3) अनुकरण सिद्धान्त की उद्‌भावना का श्रेय प्लेटो को है।

 

(4) प्लेटो ईश्वरीय प्रेरणा को काव्य की रचना प्रक्रिया का अनिवार्य साधन मानते है। व्युत्पति, अभ्यास आदि का महत्व उनकी दृष्टि में नितान्त गौण है।

 

(5) विरेचन सिद्धान्त के संकेत भी उनके कथनों में विद्यमान है।

 

(6) साहित्य में काव्यगत न्याय (Poetic Justice) के सिद्धान्त के प्रतिष्ठाता प्लेटो है।

 

(7) प्लेटो की तार्किकता प्रखर, अभिव्यंजना प्रांजल तथा शैली आकर्षक है।

 

प्लेटो के दोष: 

 

(1) प्लेटो ने काव्य को हृदय का व्यापार नहीं माना, भाव एवं कल्पना के स्थान पर अनुकरण को महत्व दिया।

 

(2) प्लेटो कला में निहित सर्जनशीलता को नहीं समझ पाए ।

 

(3) प्लेटो ने कला को कला की दृष्टि से न देखकर समाज कल्याण की दृष्टि से परखा है। उन्होंने कला में सुन्दर से अधिक 'शिव' पर बल दिया है जो सौन्दर्य शास्त्र की दृष्टि नहीं है।

 

(4) प्लेटो ने दर्शन और काव्य के शाश्वत विरोध की बात कहीं है जबकि दर्शन और काव्यालोचन एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक है।

 

(5) प्लेटो के कलाविषयक विवेचन में पर्याप्त पुनरुक्ति है किन्तु यह पुनरुक्ति संवादों के कारण है लेखक की मर्जी से नहीं।

 

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